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________________ ৩০ होता। किन्तु सर्वत्र कुमार श्रमण और 'पएसी' या 'पायासी' के मध्य हुए संवाद का ही उल्लेख है, न कि कुमार श्रमण और प्रसेनजित के मध्य हुए किसी संवाद का। दूसरे प्राकृत 'पएसी' और पालि 'पायासी' नाम वस्तुतः प्रसेनजित का वाचक नहीं है। क्योंकि न तो प्राकृत के किसी भी नियम से प्रसेनजित का 'पएसी' रूप बनता है और न पालि में ही प्रसेनजित का 'पायासी' रूप बनता है। दूसरे दोनों परम्पराओं में प्रसेनजित को कोसल का राजा कहा गया है और उसकी राजधानी श्रावस्ती बताई गई है। जबकि 'पएसी' या 'पायासी' को अर्ध केकय देश का राजा कहा गया है और उसकी राजधानी सेयंविया (श्वेताम्बिका) कही गई है। यद्यपि श्वेताम्बिका श्रावस्ती के समीप ही थी, अधिक दूर नहीं थी। दीघनिकाय के अनुसार 'पएसी' या 'पायासी' प्रसेनजित के अधीनस्थ एक राजा था। तभी उसे प्रसेनजित का भय बताकर यह कहा गया था कि जब प्रसेन यह सुनेगा कि ‘पएसी नास्तिकवादी है, तो क्या कहेगा? राजा प्रसेनजित एक ऐतिहासिक व्यक्तित्व अवश्य हैं और उनका उल्लेख जैन एवं बौद्ध साहित्य में भी पाया जाता है। बौद्ध त्रिपिटक साहित्य का एक महत्त्वपूर्ण ग्रन्थ दीघनिकाय है। उसके द्वितीय विभाग में पायासीसुत्त उपलब्ध होता है किन्तु उसका सम्बन्ध भी प्रसेनजित के प्रश्नोत्तर से नहीं है अपितु 'पायासी' से हुए प्रश्नोत्तर से है। उसमें भी पुनर्जन्म, परलोक की सिद्धि के लिए प्रायः वे ही तर्क दिए गए हैं, जो हमें राजप्रश्नीयसूत्र में मिलते हैं। अत: इसका संस्कृत 'राजप्रश्नीयसूत्रः' नाम ही समुचित माना जा सकता है, क्योंकि इसमें राजा के प्रश्नों का समाधान किया गया है। राजप्रश्नीयसूत्र का रचनाकाल राजप्रश्नीयसूत्र के नामकरण के पश्चात् यदि हम इसके काल के सम्बन्ध में विचार करें तो राजप्रश्नीयसूत्र का सबसे प्रथम उल्लेख हमें 'नंदीसूत्र' में कालिक सूत्रों की जो सूची दी गई है, उसमें उपलब्ध होता है। नंदीसूत्र का रचनाकाल ईसा की पाँचवी शताब्दी प्रायः सुनिश्चित है, किन्तु इसे राजप्रश्नीयसूत्र के वर्तमान संस्करण की उत्तर-तिथि ही माना जा सकता है। राजप्रश्नीयसूत्र का अन्तिम भाग जो केशीकुमार श्रमण और पएसी के संवाद रूप है, का अस्तित्व उसके पूर्व भी होना चाहिए, क्योंकि राजप्रश्नीयसूत्र के इस अंतिम भाग की समरूपता बौद्ध त्रिपिटक साहित्य के दीघनिकाय के पायासीसुत्त से है और पायासीसुत्त ईस्वी पूर्व की रचना है, 'पएसी' या 'पायासी' का यह कथानक ई. पू. छठी शती का होगा, जिसे दोनों परम्पराओं ने अपने अनुसार थोड़ा-बहुत परिवर्तित करके अपने ग्रन्थों Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001787
Book TitleJain Dharma Darshan evam Sanskruti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year2008
Total Pages226
LanguageHindi, English
ClassificationBook_Devnagari & Articles
File Size13 MB
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