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________________ ९२ ऐतिहासिकता को भी नकारा नहीं जा सकता है। भगवतीसूत्र के पश्चात् ज्ञाताधर्मकथा, उपासकदशा, अन्तकृद्दशा, अनुत्तरौपपातिकदशा और विपाकदशा में भी हमें कुछ ऐतिहासिक तथ्यों के उल्लेख प्राप्त होते हैं। यद्यपि इन ग्रंथों के कथा विभाग में अनेक कथानक प्राक् - ऐतिहासिक या पौराणिक हैं, किन्तु श्रेणिक, कुणिक आदि के अनेक कथानक ऐसे भी हैं, जिनकी ऐतिहासिकता में संदेह नहीं किया जा सकता है । उदाहरण के लिए उपासकदशांग के दसों उपासकों के, जो जीवनवृत्त हैं, उनमें उनकी सम्पत्ति आदि के सम्बन्ध में चाहे कुछ अतिरेक हो, किन्तु वे पूर्णतया काल्पनिक हैं ऐसा भी नहीं कहा जा सकता। इन ग्रंथों के कथानकों में सम्पत्ति, व्यवसाय, गोधन आदि के जो उल्लेख हैं वे महावीर काल की देश की आर्थिक स्थिति के सम्बन्ध में सम्यक् सूचना प्रदान करते हैं। इसी क्रम में उपांग साहित्य में राजप्रश्नीयसूत्र नामक जो ग्रंथ है, उसमें जो राजा प्रसेनजित एवं राजा प्रदेशी के उल्लेख हैं, वे भी ऐतिहासिक दृष्टि से कम महत्त्वपूर्ण नहीं हैं क्योंकि उनकी सम्पुष्टि बौद्ध त्रिपिटक के पसेनीयसुत्त से भी होती है। इसी प्रकार इसी राजप्रश्नीयसूत्र में जो जिनप्रतिमा एवं जिनमंदिरों के उल्लेख मिलते हैं, वे भारतीय पुरासम्पदा की विकास-यात्रा की दृष्टि से अत्यन्त महत्त्वपूर्ण माने जा सकते हैं। क्योंकि इनमें ईस्वी सन् की प्रथम - द्वितीय शती की मंदिर संरचना के सम्बन्ध में एक प्रामाणिक जानकारी उपलब्ध होती है। राजप्रश्नीय का पिता-पुत्र का संवाद उत्तराध्ययन में भी है। उपांग साहित्य के अन्य ग्रंथ चाहे ऐतिहासिक सूचनाओं की दृष्टि से कम महत्त्वपूर्ण हों, किन्तु औपपातिकसूत्र में ईसा पूर्व में भारतीय संन्यासियों की जो विविध परम्पराएँ अपने अस्तित्व में थीं और उनमें साधना की जो विविध विधियाँ प्रचलित थीं उनका एक प्रामाणिक विवरण उपलब्ध होता है। इसी प्रकार ईसा पूर्व में भारतीय खगोलशास्त्र की मान्यताओं के संदर्भ में सूर्यप्रज्ञप्ति एवं चन्द्रप्रज्ञप्ति से भी महत्त्वपूर्ण सामग्री उपलब्ध होती है। जिसके माध्यम से हम भारतीय ज्योतिषशास्त्र की ऐतिहासिक विकास-यात्रा को समझ सकते हैं, क्योंकि इन दोनों में सूर्य, चन्द्र आदि की गति सम्बन्धी जो उल्लेख हैं, वे वैदिक काल के हैं या उनके समतुल्य हैं। इसी क्रम में छेदसूत्र, जो उत्सर्ग और अपवाद मार्ग की चर्चा करते हुए विभिन्न प्रकार के प्रायश्चितों का विधान करते हैं, उनके माध्यम से भारतीय सांस्कृतिक विकास-यात्रा को समझने में हमें सहायता मिल सकती है। इसी क्रम में उत्तराध्ययनसूत्र महावीर और पार्श्व की Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001787
Book TitleJain Dharma Darshan evam Sanskruti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year2008
Total Pages226
LanguageHindi, English
ClassificationBook_Devnagari & Articles
File Size13 MB
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