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________________ ३९८ वज्जालग्ग है। संभव है, लिपि-कर्ताओं ने 'पहम्मई' को महम्मइ' लिख दिया हो । यहाँ समस्या आदिवर्ती म की है, क्योंकि प्राकृत में हम्मइ क्रिया ही होती है, महम्मइ नहीं। गाथा पर अपभ्रंश का प्रभाव मान कर इस समस्या का समाधान अन्य प्रकार से भी हो सकता है। अपभ्रंश में प्रतिषेधार्थक अव्यय मा के स्थान पर प्रायः म हो जाता है। प्रतिलिपिकारों के प्रमाद से 'म हम्मइ' का 'महम्मई' हो जाना नितान्त स्वाभाविक है। क्रिया का लट लोडर्थक है (व्यत्ययश्च ४।४४७ )। अब गाथा का अर्थ इस प्रकार है इस तरुण वैद्य के द्वारा यह तरुणी बालातन्त्र (स्त्रीरोगशास्त्र) को छोड़ कर ऐसे पीतसर्षपों (पीली सरसों) से मत मारी जाय, जो वशीकरण करने वाले मन्त्र-तन्त्रों से युक्त हैं ( या वशीकरण करने वाले मन्त्रों-तन्त्रों के साथ पीत सर्षपों से मत मारी जाय )। क्रिया का लडर्थ ( वर्तमानकालिक अर्थ ) भी ग्राह्य है। किसी प्रीति-ज्वरपीड़िता बाला की चिकित्सा बालातन्त्रोक्त उपायों से हो रही थी। न उसका मीझाड़-फूंक करने वाला तरुण वैद्य-उपचारार्थ बुलाया जाता था और न उसकी व्याधि ही दूर हो रही थी। इस रहस्य को जानने वाली सहेली की उक्ति है बालातन्त्रोक्त उपायों को छोड़ कर यह तरुण वैद्य के द्वारा अभिमन्त्रित सर्षपों से नहीं मारी जा रही है ( अर्थात् जिस उपाय से व्याधि छोड़ेगी, वह नहीं हो रहा है)। गाथा क्रमांक ५२१ अन्नं च रुच्चइ च्चिय मज्झ पियासाइ पूरियं हिययं । नेहसुरयल्लयंगे तुह सुरयं विज्ज पडिहाइ' ॥ ५२१ ।। अन्नं (अन्यत्) न रोचत एव, मम पिपासया (प्रियाशया) पूरितं हृदयम् । स्नेहसुरतार्द्राङ्गे तव सुरतं वैद्य प्रतिभाति ॥ -रत्नदेव सम्मत संस्कृत छाया यह भी जार के उपचारार्थ उपस्थित होने पर अनंग-ज्वर-पीडित कामिनी की उक्ति है। पद्य का उत्तरार्ध रत्नदेव-द्वारा अव्याख्यात है। उन्होंने संस्कृत छाया मात्र दी है। उस छाया में श्लेष की कोई संभावना नहीं सूचित होती है । १. इस गाथा के उत्तरार्ध का अनुवाद श्री पटवर्धन ने नहीं किया है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001736
Book TitleVajjalaggam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayvallabh, Vishwanath Pathak
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year1984
Total Pages590
LanguagePrakrit, Hindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size8 MB
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