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________________ वज्जालग्ग २६२. तट पर स्थित एक ही मराल से सरोवर जो शोभा पाता है, वह बहुत से सारसों के समूहों से भी नहीं ॥ ६ ॥ २६३. जैसे मानस के अभाव में राजहंसों को सुख नहीं मिलता है, वैसे ही हंसों के बिना मानस के भी तट सुशोभित नहीं होते ।।७।। २९--चंद-वज्जा (चन्द्र-पद्धति) २६४. जिसमें जयश्री निवास करती है, उसकी रक्षा बड़े आदर से करो। चन्द्र के अस्त हो जाने पर तारों से चाँदनी नहीं होती है ।। १ ।। २६५. चन्द्रमा जैसे-जैसे बढ़ता है, ओह देखो, तैसे-तैसे मृग (कलंक) द्वारा गृहीत होता जाता है (पक्ष में मद द्वारा)। यदि किसी की ऋद्धियाँ दोष-हीन होती (तो कितना अच्छा होता) ।। २ ।। __ २६६. जिसका प्रकाश विस्तृत भू-पृष्ठ को धवल बना देता है, उस अकेले चन्द्रमा के रहते बहुत से तारों से क्या प्रयोजन ? और उसके न रहने पर बहुत से तारों से भी क्या लाभ ? ॥ ३॥ २६७. चन्द्रमा का क्षय होता है, तारों का नहीं, ऋद्धि भी उसी की होती है, उनकी नहीं। चढ़ाव-उतार श्रेष्ठ जनों का ही होता है, अन्य क्षुद्र लोग तो सदैव पतनावस्था में ही रहते हैं ।। ४ ।। १. मूल में ढिंक शब्द है। इसका अर्थ रत्नदेव की टीका में नहीं है। डा० जगदीश चन्द्र जैन ने (प्राकृत साहित्य का इतिहास, पृ० ५८५) ढिंक का अर्थ मेढ़क लिखा है (जिस की प्रामाणिकता सन्दिग्ध है)। पाइयसद्द-महण्णव के अनुसार वह पक्षि विशेष का वाचक है। प्रो० पटवर्धन ने उसे कौए या सारस के अर्थ में ग्रहण किया है। इन दोनों अर्थों में प्रथम (कौआ) उपयुक्त नहीं है क्योंकि प्रसंगानुसार किसी जलचर विहंग का हो वर्णन होना चाहिये। द्वितीय अर्थ (सारस) ग्राह्य हो सकता है। हिन्दी काव्यों में उक्त शब्द इसी अर्थ में प्रयुक्त हुआ है । 'देशी नाममाला' में वायस (कौआ) के अर्थ में ढंक शब्द संकलित है (ढंको अ वायसे-४।१३) और साथ ही बलाका के अर्थ में ढेंकी शब्द भी है (बलाइया ढेंकी-४।१५)। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001736
Book TitleVajjalaggam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayvallabh, Vishwanath Pathak
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year1984
Total Pages590
LanguagePrakrit, Hindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size8 MB
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