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________________ हिन्दी अनुवाद-अ. ३, पा. ४ २७५ डमः सुश् यत्तत्किभ्यः ।। २९ ।। अपभ्रंश में अकारान्त यत् , तत् , किम् इनके आगे ङस् के स्थान पर सुश् ऐसा आदेश विकल्पसे हो । है । (सुशमें) श् इत् होनेसे पूर्व (पिछला) स्वर दीर्व होना है ॥ २९ ॥ कतु महारउ हलि सहिए निच्छइँ रू सइ जासु । अस्थिहिँ सस्थिहिँ वि ठाउ वि फेडइ तासु ॥१२७॥ (-हे.३५८.१) (कान्तोऽस्माक हे सखि निश्चयेन रुष्यति यस्य । अस्त्रैः शस्त्रैर्हस्तैरपि स्थान मपि स्कोटयति तस्य |) हे सखी, (मेरा) प्रियकर जिसस निश्चयरूपमें रुष्ट हो जाता है, उसका स्थान वह अस्त्र, शस्त्र (या) हाथोंके द्वारा फोडता है । जीविउँ कासु न वल्लहउँ धणु पुणु कासु न इट्छ । दो पण वि अवसरनिवडई तिणसम गणइ विसिठ्ठ ।।१२८॥ (=हे.३५८.२) (जीवितं कस्य न वल्लभं धनं पुनः कस्य नेष्टम् । द्वे अप्यवसरनिपतिते तृणसमे गणयति विशिष्टः ॥) जीवित किसे प्रिय नहीं है ? और धनकी इच्छा किसे नहीं है ? तथापि (विशिष्ट) समय आनेपर विशिष्ट (श्रेष्ठ) व्यक्ति (इन) दोनोको तृणके समान समझता है। विकरूपपक्षमें-तसु हउँ कलिजुगि [१०७] । इत्यादि । खियां डहे ।। ३०॥ _अपभ्रंशमें स्त्रीलिंगमें रहनेवाले यद्, तद, किम् के आगे डस् को डित् अहे ऐसा आदेश विकल्पसे होता है । उदा. ज हे केरउ,यस्याः संबंधि ॥३०॥ यत्तद 5@ म्वमोः ॥ ३१ ॥ अपभ्रंशमें, सु और अम् (प्रत्यय) आगे होनेपर, यद् और तद् इन (दनों) को एथाक्रम धुं और जे एसे आदेश पर होते हैं ।। ३१ ।। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001735
Book TitlePrakritshabdanushasanam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTrivikram
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1973
Total Pages360
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Grammar
File Size19 MB
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