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________________ प्राकृत एवं संस्कृत साहित्य में गुणस्थान की अवधारणा..... पंचम अध्याय........{399} गोम्मटसार के कर्मकाण्ड के पांचवें स्थानसमुत्कीर्तन अधिकार में गाथा क्रमांक ४५३ से लेकर ४५७ तक विभिन्न गुणस्थानों में सर्वप्रथम मूल प्रकृतियों के बन्ध, उदय, उदीरणा और सत्ता के स्थानों का उल्लेख हुआ है। सर्वप्रथम गाथा क्रमांक ४५१ में स्थान को परिभाषित करते हुए कहा गया है कि एक जीव को एक समय में जितनी कर्मप्रकृतियाँ सम्भव है, उनके समूह को स्थान कहते हैं । आगे गाथा क्रमांक ४५२ से ४६३ तक गुणस्थानों में बन्ध की चर्चा करते हुए कहा गया है कि प्रथम मिथ्यात्व गुणस्थान से लेकर अप्रमत्तसंयत गुणस्थान तक मिश्र गुणस्थान को छोड़कर छः गुणस्थानों में आयु के बिना सात और आयु सहित आठ मूल प्रकृतियों का बन्ध होता है । मिश्र गुणस्थान, अपूर्वकरण और अनिवृत्तिकरण गुणस्थान में आयु के बिना सात मूल कमप्रकृतियों का ही बन्ध होता है । सूक्ष्मसंपराय गुणस्थान में आयुष्य और मोह इन दो मूल कर्मप्रकृतियों को छोड़कर शेष छः कर्मप्रकृतियों का बन्ध होता है । उपशान्तकषाय, क्षीणकषाय और सयोगी केवली गुणस्थान में मात्र वेदनीय कर्म का बन्ध होता है । अयोगी केवली गुणस्थान में किसी भी कर्मप्रकृति का बन्ध नहीं होता है । इस क्रम में गाथा क्रमांक ४६६ से ४७२ तक में भूयस्कार बन्ध, अल्पतर बन्ध आदि का भी उल्लेख हुआ है । पहले अल्प प्रकृतियों का बन्ध कर पीछे बहुत प्रकृतियों के बन्ध को भूयस्कार बन्ध कहते हैं। इसके विपरीत बहुत प्रकृतियों के बन्ध और पीछे अल्प प्रकृतियों के बन्ध को अल्पतर बन्ध कहते है। पूर्व में जितनी प्रकृतियाँ बांधी हो, उतनी ही प्रकृतियों का बन्ध उसके अनन्तर समय में करे, तो वह अवस्थित बन्ध कहलाता है। पहले किसी प्रकृति का बन्ध न करके पीछे उन प्रकृतियों का बन्ध करे, तो वह अवक्तव्यबन्ध कहलाता है । इनमें से भूयस्कार बन्ध, अल्पतरबन्ध और अवस्थितबन्ध-ये तीन बन्ध मूल प्रकृतियों के सन्दर्भ में सम्भव होते है, किन्तु उत्तर प्रकृतियों के सन्दर्भ में अवक्तव्यबन्ध सहित चारों ही बन्ध सम्भव है । गोम्मटसार की उपर्युक्त गाथाओं की टीका में इस सम्बन्ध में विस्तृत चर्चा है कि विभिन्न गुणस्थानों में इन चारों बन्धों में कौन-सा बन्ध घटित होता है । विस्तार भय से हम उस चर्चा में नहीं जाना चाहते है । जहाँ तक मूल प्रकृतियों के उदय का प्रश्न है, कर्मकाण्ड की गाथा क्रमांक ४५४ में कहा गया है कि मिथ्यात्व गुणस्थान से लेकर सूक्ष्मसंपराय गुणस्थान तक आठों ही मूल प्रकृतियों का उदय रहता है । उपशान्तकषाय और क्षीणकषाय गुणस्थान में मोहकर्म के बिना सात मूल कर्मप्रकृतियों का उदय रहता है । सयोगी केवली और अयोगी केवली गुणस्थानों में चार अघाती कर्मों की मूल प्रकृतियों का ही उदय रहता है । उदीरणा के सम्बन्ध में चर्चा करते हुए गाथा क्रमांक ४५५ से ४५६ तक में कहा गया है कि चारों घातीकर्मों की उदीरणा क्षीणकषाय गुणस्थान पर्यन्त सभी छद्मथ जीव करते हैं, किन्तु इसमें मोहनीय कर्म और आयुष्य कर्म की उदीरणा प्रमत्तसंयत गुणस्थान तक ही सम्भव है। नाम और गोत्रकर्म की उदीरणा सयोगी केवली गुणस्थान पर्यन्त होती है । मिश्र गुणस्थान को छोड़कर मिथ्यात्व गुणस्थान से लेकर प्रमत्तसंयत गुणस्थान तक पांच गुणस्थानों में आयु का आवलिका काल मात्र शेष रहने पर आय को छोड़कर शेष सात कर्मों की उदीरणा ही सम्भव है । सुक्ष्मसंपराय गणस्थान में आवलिका मात्र शेष रहने पर आयुष्य, मोहनीय और वेदनीय - इन तीन को छोड़कर पांच की ही उदीरणा सम्भव होती है । क्षीणकषाय गुणस्थान में आवलिका मात्र काल शेष रहने पर नाम और गोत्र - इन दो कर्मो की ही उदीरणा सम्भव होती है । इसके पश्चात गाथा क्रमांक ४५७ में आठ मूल कर्मप्रकृतियों की सत्ता के सम्बन्ध में विचार किया गया है कि प्रथम मिथ्यात्व गुणस्थान से लेकर उपशान्तमोह नामक ग्यारहवें गुणस्थान तक आठों ही मूल कर्मप्रकृतियों की सत्ता रहती है। क्षीणकषाय गुणस्थान में मोहनीय कर्म के अतिरिक्त सात कर्मों की सत्ता होती है। सयोगी केवली और अयोगी केवली गुणस्थान में चार अघाती कर्मो की ही सत्ता शेष रहती है । इसके पश्चात् इस अधिकार में विभिन्न कर्मप्रकृतियों के कितने बन्धस्थान होते है, किनमें भूयस्कार बंध सम्भव होते है और किनमें सम्भव नहीं है, भूयस्कारबन्ध, अल्पतरबन्ध, अवस्थितबन्ध और अवक्तव्यबन्ध में किन गुणस्थानों में किन कर्मप्रकृतियों का किस रूप में बन्ध होता है तथा उसमें बन्धस्थान कितने होते है, इसका विस्तृत एवं अत्यन्त सूक्ष्म विवेचन इस स्थानसमुत्कीर्तनाधिकार में हुआ है । यह समस्त चर्चा शतक नामक पंचम कर्मग्रन्थ में भी उपलब्ध होती है । अतः विस्तार एवं पुनरावृत्ति के भय से इस चर्चा को यहाँ पुनः करना समुचित नहीं है । स्थानों की चर्चा के साथ-साथ बन्ध विकल्पों की भी चर्चा की गई है। यह चर्चा भी पंचम कर्मग्रन्थ में मिलती है, अतः उसका भी पुनरावर्तन करना उचित नहीं है। गोम्मटसार के कर्मकाण्ड का छठा आश्रवाधिकार है । इस अधिकार में गाथा क्रमांक ७५७ से ७६० तक में, किस Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001733
Book TitlePrakrit evam Sanskrit Sahitya me Gunsthan ki Avadharana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDarshankalashreeji
PublisherRajrajendra Prakashan Trust Mohankheda MP
Publication Year2007
Total Pages566
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, Soul, & Spiritual
File Size20 MB
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