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________________ प्राकृत एवं संस्कृत साहित्य में गुणस्थान की अवधारणा...... पंचम अध्याय........{372} मृत्यु को प्राप्त नहीं होता है । वह बारहवें गुणस्थान से आगे बढ़ते हुए तेरहवें और चौदहवें गुणस्थान का स्पर्श करते हुए ही देह का त्याग करता है । अतः क्षपकश्रेणी से आध्यात्मिक विकास की यात्रा करनेवाला जीव मध्य में रूकता नहीं है, पतित नहीं होता है । वह नियम से अग्रिम-अग्रिम गुणस्थनों को स्पर्श करते हुए चौदहवें अयोगी केवली गुणस्थान से मुक्ति को प्राप्त करता है। जबकि उपशमश्रेणीवाला जीव ग्यारहवें गुणस्थान का भी स्पर्श करें यह आवश्यक नहीं होता है, वह आठवें, नवें और दसवें गुणस्थान से भी पतित हो सकता है। ___इस प्रकार जैनदर्शन यह सिद्धान्त प्रतिपादित करता है कि उपशमश्रेणी में चाहे व्यक्ति का क्षणिक आध्यात्मिक विकास होता है, किन्तु वह मुक्ति का मार्ग नहीं । मुक्ति का मार्ग तो क्षपकश्रेणी से आरोहण करने में ही है । जैनदर्शन में उपशमश्रेणी और क्षपकश्रेणी से आध्यात्मिक विकास करने सम्बन्धी यह अवधारणा आधुनिक मनोवैज्ञानिक की दृष्टि से अत्यन्त महत्वपूर्ण है। इस सम्बन्ध में डॉ. सागरमल जैन ने अपने शोध ग्रन्थ 'जैन, बोध और गीता के आचारदर्शनों का तुलनात्मक अध्ययन' में विस्तार से चर्चा की है । यहाँ हम उसके कुछ महत्वपूर्ण अंश प्रस्तुत कर रहे हैं, ताकि यह सिद्ध हो सके कि, क्षपकश्रेणी ही मुक्ति का वास्तविक मार्ग है । डॉ. सागरमल जैन लिखते हैं कि, जैन परम्परा अपने पारिभाषिक शब्दों में स्पष्ट रूप से कहती है कि साधना का सच्चा मार्ग औपशमिक नहीं, वरन् क्षायिक है। जैन दृष्टिकोण के अनुसार औपशमिक मार्ग वह मार्ग है, जिसमें मन की वृत्तियों या निहीत वासनाओं को दबाकर साधना के क्षेत्र में आगे बढ़ा जाता है । इच्छाओं के निरोध का मार्ग ही औपशमिक मार्ग है। जैसे आग को राख से ढक दिया जाता है, वैसे ही उपशम में कर्म संस्कार या वासना-संस्कार को दबाते हुए नैतिक साधना के मार्ग पर आगे बढ़ा जाता है। आधुनिक मनोविज्ञान की भाषा में यह दमन का मार्ग है । साधना के क्षेत्र में भी वासना-संस्कार को दबाकर आगे बढ़ने का मार्ग दमन का मार्ग है । यह मन की शुद्धि का वास्तविक मार्ग नहीं है । यह तो मानसिक गंदगी को ढकना या छिपाना मात्र है। जैन-विचारकों ने गुणस्थान के विवेचन में बताया है कि वासनाओं को दबाकर आगे बढ़ने की यह अवस्था नैतिक विकास में आगे तक नहीं चलती है। ऐसा साधक विकास की अग्रिम कक्षाओं से अनिवार्यतया पदच्युत हो जाता है। कोई साधक उपशम के आधार पर आध्यात्मिक प्रगति कर ले तो भी लक्ष्य तक पहुँचकर पुनः पतित हो जाता है । उपशम सम्यक्त्ववाला और क्षायोपशमिक सम्यक्त्ववाला जीव आध्यात्मिक पूर्णता के चौदह गुणस्थानों में से ग्यारहवें गुणस्थान को प्राप्त कर पुनः वहाँ से पतित होकर प्रथम मिथ्यात्व गुणस्थान को भी प्राप्त हो जाता है। जैन दर्शन में आत्मोन्नति का सच्चा मार्ग वासनाओं का दमन नहीं है, किन्तु उनका क्षय करना है । वासनाओं के दमन और क्षय में क्या अन्तर है? जहाँ दमन से मन में वासनाएँ तो उठती है, किन्तु उन्हें दबा दिया जाता है, जबकि क्षय में तो शनैः-शनैः वासनाओं का क्षय हो जाता है, उनका उड़ना समाप्त हो जाता है । दमन अर्थात् उपशम वह प्रक्रिया है जिसमें क्रोध आता है, परन्तु उसे दबाया जाता है, जबकि क्षय में क्रोधादि भाव ही समाप्त हो जाते हैं। ___ इस प्रकार गुणस्थान सिद्धान्त के सन्दर्भ में उपशमश्रेणी और क्षपकश्रेणी की अवधारणा यही सिद्ध करती है कि आध्यात्मिक विकास का सम्यक् मार्ग वासनाओं का दमन नहीं, अपितु उन्हें जड़ मूल से समाप्त करना है। सप्ततिका नामक पष्ठमकर्मग्रन्थ में प्रतिपादित गुणस्थान सम्बन्धी अवधारणाएँ छः कर्मग्रन्थों में पाँच कर्मग्रन्थों के पूर्वाचार्य कृत प्राचीन और देवेन्द्रसूरि कृत नवीन-ऐसे दोनों ही प्रकार उपलब्ध होते हैं। यघपि गाथा भेद को छोड़कर इनमें प्रतिपादन में विशेष अन्तर परिलक्षित नहीं होता है, किन्तु जहाँ तक सप्ततिका नामक षष्ठ कर्मग्रन्थ का प्रश्न है, वह प्राचीन ही है। देवेन्द्रसूरि ने छठा कर्मग्रन्थ नहीं लिखा है । उन्होंने प्राचीन सप्ततिका नामक कर्मग्रन्थ को ही छठे कर्मग्रन्थ के रूप में रखा है। यह छठा कर्मग्रन्थ आचार्य चन्द्रर्षि महत्तर की कृति मानी जाती है। वर्तमान में इसमें १ गाथाएँ उपलब्ध होती है, किन्तु सिद्धान्तः इसके नामानुरूप ७० गाथाएँ ही होना चाहिए। दिगम्बर के पंचसंग्रह के सप्ततिका नामक पंचम अधिकार मे मूल गाथाएँ ७२ ही है । श्वेताम्बर सप्ततिका नामक छठे कर्मग्रन्थ में जो अधिक गाथाएँ पाई जाती हैं, वे मुख्यतया भाज्य गाथाएँ ही है और अन्य ग्रन्थों से उदघत की गई है, क्योंकि इस छठे कर्मग्रन्थ की अन्तिम ६१ वीं गाथा में Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001733
Book TitlePrakrit evam Sanskrit Sahitya me Gunsthan ki Avadharana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDarshankalashreeji
PublisherRajrajendra Prakashan Trust Mohankheda MP
Publication Year2007
Total Pages566
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, Soul, & Spiritual
File Size20 MB
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