SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 246
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ प्राकृत एवं संस्कृत साहित्य में गुणस्थान की अवधारणा...... चतुर्थ अध्याय........{200} आत्मिक विकास की यात्रा में उपशमक और क्षपक की यह चर्चा प्राचीन स्तरीय रही है। पूज्यपाद देवनन्दी द्वारा गुणस्थानों की इस चर्चा के प्रसंग में इनका स्पष्ट उल्लेख इस तथ्य को प्रकट करता है कि वे प्राचीन परम्परा का अनुसरण कर रहे हैं। तत्त्वार्थसूत्र के नवें अध्याय में आध्यात्मिक विकास की जिन दस अवस्थाओं की चर्चा उमास्वाति ने की है, उसमें अनन्तवियोजक, दर्शनमोहक्षपक (चारित्रमोह), उपशमक (चारित्रमोह), उपशान्त (चारित्रमोह), क्षपक और क्षीणमोह का उल्लेख हुआ है। इससे यह स्पष्ट सिद्ध होता है कि गुणस्थानों की यह अवधारणा आध्यात्मिक विकास की दस अवस्थाओं से किसी न किसी रूप में सम्बन्धित रही है । इस आधार पर डॉ सागरमलजैन ने जो यह परिकल्पना की है कि आचारांगनियुक्ति, तत्त्वार्थसूत्र तथा षट्खण्डागम के चतुर्थ कृतिअनुयोगद्वार में उल्लेखित आध्यात्मिक विकास की इन दस अवस्थाओं से ही चौदह गुणस्थानों की अवधारणा का विकास हुआ है, वह तार्किक दृष्टि से सबल प्रतीत होती है।३६ सर्वार्थसिद्धि टीका में पूज्यपाद देवनन्दी ने अपूर्वकरण, अनिवृत्तिकरणबादरसंपराय और सूक्ष्मसंपराय में उपशमक और क्षपक के जो भेद दिए हैं, वे ही आगे चलकर उपशमश्रेणी और क्षपकश्रेणी के सूचक बन जाते हैं । इसी प्रसंग में सर्वार्थसिद्धिकार ने चौदह गुणस्थानों के साथ-साथ चौदह मार्गणाओं की जो चर्चा की है, वह इस तथ्य की सूचक है कि सर्वार्थसिद्धि के रचनाकाल तक मार्गणास्थान और गुणस्थान की चर्चा विकसित हो चुकी थी और उनके पारस्परिक सम्बन्ध को भी स्पष्टतया जान लिया गया था। अग्रिम पंक्तियों में हम चौदह मार्गणाओं और चौदह गुणस्थानों के पारस्परिक सम्बन्ध को पूज्यपाद देवनन्दी ने किस प्रकार स्पष्ट किया है, इसकी चर्चा करेंगे। प्रथम सत्-अनुयोगद्वार : सत्-प्ररूपणा दो प्रकार की है-एक सामान्य और दूसरी विशेष । जीव मिथ्यादृष्टि होता है या सम्यग्दृष्टि होता है, ऐसे कथन करना सामान्य प्ररूपणा है, किन्तु विशेष प्ररूपणा की दृष्टि से गतिमार्गणा में किस गति में कौन-से गुणस्थान होते है, इसकी चर्चा की जाती है । जैसे नरकगति में सातों पृथ्वियों में प्रथम चार गुणस्थान पाए जाते हैं, तिर्यंचगति में प्रथम पाँच गुणस्थान पाए जाते हैं, मनुष्य गति में चौदह गुणस्थान हो सकते हैं, किन्तु देवगति में नारकी के समान ही प्रथम से लेकर चतुर्थ तक चार गुणस्थान ही पाए जाते हैं। इन्द्रियमार्गणा में एकेन्द्रिय और विकलेन्द्रिय जीवों में पहला मिथ्यादृष्टि गुणस्थान होता है, किन्तु पंचेन्द्रिय जीवों में चौदह गुणस्थान पाए जाते हैं। कायमार्गणा में पृथ्वीकाय से लेकर वनस्पतिकाय तक के जीवों में एक मिथ्यादृष्टि गुणस्थान होता है, जबकि त्रसकाय में चौदह गुणस्थान पाए जाते हैं। __ योगमार्गणा के अनुसार मन-वचन और काय, इन तीनों योगों में प्रथम से लेकर तेरहवें गुणस्थान तक तेरह गुणस्थान होते हैं। चौदहवाँ गुणस्थान अयोगी केवली गुणस्थान होने से उसमें योग सम्भव नहीं है । वेदमार्गणा में पुरुषवेद, स्त्रीवेद और नपुंसकवेद, इन तीनों वेदों में पहले गुणस्थान से लेकर नवें गुणस्थान तक नौ गुणस्थान पाए जाते हैं। आगे के गुणस्थानों में वेद (कामवासना) का अभाव होता है । मात्र लिंग रहता है। अपगतवेदी अर्थात् वे जीव जिनकी कामवासना समाप्त हो चुकी है, नवें से चौदहवें तक छः गुणस्थानों में पाए जाते हैं। कषायमार्गणा में क्रोध, मान और माया इन-तीन कषायों में मिथ्यादृष्टि से लेकर अनिवृत्तिबादरसंपराय तक नौ गुणस्थान पाए जाते हैं । लोभकषाय में मिथ्यादृष्टि से सूक्ष्मसंपराय तक दस गुणस्थान पाए जाते हैं। ग्यारहवें से लेकर चौदहवें-इन चार गुणस्थानों तक जीव अकषायी होते हैं, गुणस्थानों में कषायों की सत्ता नहीं है। २३६ गुणस्थानसिद्धान्तः एक विश्लेषण - पृ. २८ Jain Education Intemational For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001733
Book TitlePrakrit evam Sanskrit Sahitya me Gunsthan ki Avadharana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDarshankalashreeji
PublisherRajrajendra Prakashan Trust Mohankheda MP
Publication Year2007
Total Pages566
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, Soul, & Spiritual
File Size20 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy