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________________ "आत्मा का उन्नयन ही सच्चा सुख" - डॉ. सुरेश मेहता जीव विज्ञान विभाग शासकीय महाविद्यालय, जावरा आज सम्पूर्ण विश्व का मानव समाज व्यक्तिगत स्वार्थ, हिंसा एवं दुराग्रह के दौर से गुजर रहा है । कहने को सारा विश्व सिमट कर एक मुट्ठी में आ गया है, वैश्वीकरण का युग है, पर सच तो यह है कि पड़ौसी तक एक दूसरे से अनभिज्ञ है; उन्हें अपने सिवाय किसी के भी सुख-दुख से सरोकार नहीं है । जहाँ स्वार्थ सिद्धि संहार एवं आपसी अविश्वास और भय का साया हो वहाँ शान्ति सुकून एवं सुख असंभव है। भौतिक सुखों को ही अंतिम सुख मानकर हम सभी महावीर के अहिंसा, अपरिग्रह और अनेकान्त जैसे महत्वपूर्ण सिद्धान्तों से दूर हट गये हैं। अपने स्वयं की आत्मा के उत्थान के प्रयास लगभग क्षीण हो चुके हैं, हमारी सहृदयता केवल अपना हित साधने तक सीमित रहती है । भवों के भंवरजाल में उलझकर हम शांति, सत्य और मुक्ति के मार्ग से भटक गये हैं। जीव जगत में प्रत्येक प्राणी, चाहे वह सूक्ष्म से सूक्ष्म हो या स्थूल हो, सुख ओर सुविधाजनक स्थिति में रहना चाहता है । सब के लिये सुख की परिभाषा भिन्न-भिन्न है पर क्या जीव असली सुख के स्वरूप को आज तक समझ पाया है ? जीवन विज्ञान में जीव के शारीरिक एवं बौद्धिक विकास को सिद्धान्त स्वरूप मान्य किया है । जिसे हम मनुष्य भव कहते हैं वह जीव विज्ञान के दृष्टिकोण से शरीर एवं बुद्धि की सर्वोच्च विकास अवस्था है । जैन दर्शन आत्मा के आल्हाद स्वरूप अनुजीवी गुन को ही परम सुख की संज्ञा देता है, और यही सच भी है तथा जीवात्मा का स्वभाव भी, परन्तु भ्रमवश साता वेदनीय कर्मोदय के परिणाम स्वरूप हमारे आस-पास बिखरे छोटे मोटे सुखों को ही हम सच्चा एवं अंतिम सुख मानने की भूल कर बैठे हैं। _क्या संसारी जीव उस चरम सुख को प्राप्त कर सकते हैं ? शास्त्रकारों का कहना है कि मानव जन्म पाकर सत्यनिष्ठा से पुरुषार्थ करने का भाव यदि मन में हो तो हम आत्मा के उस चरम स्थिति तक ले जा सकते हैं । आत्मा से समस्त कर्मों का पूर्ण वियोग हो जाये तो समझो मोक्ष है। ____ आत्मा की क्रमोन्नति क्रमशः संवर और निर्जरा भाव से हो सकती है अर्थात् नवीन का आगमन न हो एवं पूर्वकृत का परिमार्जन हो तो हम शनैः शनैः उन्नति के मार्ग पर अग्रसर हो सकते हैं। उपरोक्त दोनों बातों के लिये उपाय स्वरूप यदि हम सच्चे मन से रत्नत्रयी आराधक बनने का प्रयास करें और सम्यगदर्शन, सम्यकज्ञान और सम्यक्चारित्र में एकाकार हों तो श्रेष्ठतम गुणस्थानों पर पहुँचने का मार्ग प्रशस्त हो सकता आत्मा के विविध गुणों की तादात्म्य अवस्था विशेष को ही गुणस्थान कहा गया है । जैन वांङ्मय में इन गुणस्थानों के चौदह प्रमुख भेद बताये गये हैं । ये क्रमशः मिथ्यात्व, सासादन, मिश्र, अविरत सम्यग्दृष्टि, देशविरत, प्रमत्त, अप्रमत्त, अपूर्वकरण, अनिवृत्तिकरण, सूक्ष्मसंपराय, उपशान्त मोह, क्षीणमोह, सयोगकेवली, अयोगकेवली इत्यादि । प्रत्येक गुणस्थान Jain Education Intemational Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001733
Book TitlePrakrit evam Sanskrit Sahitya me Gunsthan ki Avadharana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDarshankalashreeji
PublisherRajrajendra Prakashan Trust Mohankheda MP
Publication Year2007
Total Pages566
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, Soul, & Spiritual
File Size20 MB
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