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________________ प्रस्ताव ३ : दयाकुमारी ३६५ को प्रिय न लगे ऐसा उसके शरीर का कोई भाग नहीं है । इसीलिये मुनिपुंगवों ने उसे रूप से सुन्दर कहा है । [ ३-५ ] दया के स्वजन - सम्बन्धी क्षान्ति, शुभपरिणाम, चारुता, निष्प्रकम्पता, शौच, सन्तोष और धैर्य आदि हैं । यह उनके हृदय में निवास कर उन्हें सतत आह्लादित करती रहती है । इसीलिये उसे सगे सम्बन्धियों की प्यारी कहा गया है । [६-७] स्वर्गलोक, मनुष्यलोक और मोक्ष में जो कुछ सुख की श्रेणी / परंपरा है, वह सब दया से श्रोत-प्रोत प्राणियों के हाथ में ही होती है, इसीलिये इसे प्रानन्द परम्परा का कारण कहा गया है । अतएव स्त्री होते हुए भी वह महामुनियों के हृदय में भी निवास करती है । [-] दया की उपादेयता जिनमतज्ञ नैमेत्तिक ने आगे कहा- संसार में दया सच्ची हितकारिणी है, सर्व गुरणों को आकृष्ट करने वाली है, समस्त गुणों की भण्डार है, धर्म की सर्वस्व है, दोषों का नाश करने वाली है, समस्त सन्तापों को शान्त करने की शक्ति को धारण करने वाली है और सर्व प्रकार की वैर-परम्परा को नष्ट करने वाली है । कितना वर्णन करें ? कमलपत्र के समान नेत्रों वाली दयाकुमारी इतने गुणों की खान है कि उसका सम्पूर्ण वर्णन कौन कर सकता है ? महाराज ! मेरे कहने का तात्पर्य यह है कि इस संसार में हिंसा को नाश करने का एक मात्र यही उपाय है । अन्य कोई उपाय नहीं है । यह उपाय भी तभी कारगर होगा जब कि आपका घीर-वीर कुमार इस दयाकुमारी के साथ लग्न करेगा। ऐसा होते ही इसकी दुष्ट भार्या हिंसा स्वतः ही नष्ट हो जायगी, भाग जायगी । महाराज ! यह हिंसा तो महापापिनी और प्रज्वलित प्राग है जब कि दयाकुमारी तो महाशुद्ध और हिम जैसी शीतल है । हिंसा और दया में अग्नि और जल जैसा अन्तर है । [ १०-१५ ] दया के साथ लग्न की चिन्ता जिनमतज्ञ नैमित्तिक के उपरोक्त वचन सुनकर राजा ने पूछा- आर्य ! राजकुमार नन्दिवर्धन इस कन्या के साथ कब विवाह करेगा ? नैमेत्तिक - महाराज ! जब शुभपरिणाम राजा अपनी पुत्री का विवाह तुम्हारे पुत्र के साथ करने की इच्छा करेगा तभी यह लग्न होगा । पद्म राजा - शुभपरिणाम राजा अपनी पुत्री का लग्न कब करेगा ? नैमेत्तिक - जब कुमार को शुभ परिणाम राजा अनुकूल होगा तब । पद्म राजा - शुभपरिणाम राजा को कुमार के अनुकूल बनाने का कोई उपाय भी है या नहीं ? * पृष्ठ २७३ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001725
Book TitleUpmiti Bhav Prakasha Katha Part 1 and 2
Original Sutra AuthorSiddharshi Gani
AuthorVinaysagar
PublisherRajasthan Prakrit Bharti Sansthan Jaipur
Publication Year1985
Total Pages1222
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Literature, & Story
File Size23 MB
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