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________________ प्रस्ताव ३ : कनकमंजरी ३४३ यह सुनकर मैं अपने मन में विचार करने लगा कि यह तेतलि बहत चतुर है । यह मेरे मन का भाव समझ गया है । इसने मेरी प्रिया को बहुत समय तक देखा है अतः यह भाग्यशाली भी है। अभी-अभी इसने कहा कि यह मेरे दुःख का कारण और उसके निवारण की औषध भी जान गया है । लगता है मेरे कामज्वर को मिटाने वाली उस कन्या की प्राप्ति में यह मेरी सहायता अवश्य करेगा। सच ही आज इसने मेरी प्राण रक्षा की है। यह सोचकर मैंने स्नेहवश खींचकर उसे पलंग पर बिठाया और कहा-तेतलि ! तुमने मेरे रोग का कारण तो ढूढ निकाला पर अब उसका उपचार क्या है यह तो बता? तेतलि-देव ! इस दृष्टिदोष का उपचार यह है कि-जब किसी की नजर लगी हो तो किसी चतुर वृद्ध महिला को बुलाकर उससे नमक उतरवाना चाहिये, मंत्र में कुशल किसी व्यक्ति से झड़वाना चाहिये, कान के पीछे मंत्रित राख लगानी चाहिये, गंडों का (डोरा) बांधना चाहिये और अन्य प्रकार के टोने-टोटके करने चाहिये । यह भी कहा जाता है कि चाहे कैसी ही डायन लगी हो तो उसे गालियाँ देने और धमकाने से वह नर्म पड़ जाती है, अतः उस छोकरी के पास जाकर खूब कठोर वचनों से उसे धमकाना चाहिये । मेरे जैसे को उसके पास जाकर कहना चाहिये, 'अरे वामलोचना ! हमारे स्वामी पर कुदृष्टि डालकर अब तू * भली मानस बनकर बैठी है, पर याद रखना अगर हमारे स्वामी का एक बाल भी बांका हमा तो तेरा जीवन एक पल भी नहीं बचेगा।' ऐसा करने से जिस छोकरी की आपको कुदृष्टि लगी है वह दूर हो जायगी । आपने पूछा अतः मैंने आपके रोग का उपचार बताया । नन्दिवर्धन-हँसकर, 'भाई तेतलि ! अब हँसी मजाक छोड़ो। मेरे दुःख को मिटाने का तूने कुछ वास्तविक उपाय सोचा हो तो बता ।' तेतलि-'कुमार ! आपके मन में इतना उद्वेग हो और मुझे उसका सच्चा उपचार ज्ञात न हो तो, ऐसे समय में मैं आपसे हँसी कर सकता हूँ भला ! आप चिन्ता न करें । आपकी इच्छा पूर्ण हो चुकी है ऐसा समझें । आपके उद्वेग को दूर करने के लिये ही मैंने आपसे विनोद करने का साहस किया है।' नन्दिवर्धन-मेरी इच्छा कैसे पूर्ण होगी ? तू मुझे जल्दी बता । अभिलषित सिद्धि का मार्ग तेतलि-प्रभो ! मैंने आते ही बताया था कि मैं प्रातःकाल ही आपके पास यहाँ आ रहा था तभी एक महत् कार्य आ गया था। उसे सम्पन्न करने में ही आधा पहर बीत गया। इसी कारण मुझे आपके पास पाने में देर हुई। आपकी अभिलाषा को पूर्ण करने का ही वह कार्य था । घटना यों थी कि, रानी मलयमंजरी (महाराज कनकचूड की महारानी) की विशेष दासी कपिजला नाम की एब वृद्ध गरिएका * पृष्ठ २५६ For Private & Personal Use Only Jain Education International www.jainelibrary.org
SR No.001725
Book TitleUpmiti Bhav Prakasha Katha Part 1 and 2
Original Sutra AuthorSiddharshi Gani
AuthorVinaysagar
PublisherRajasthan Prakrit Bharti Sansthan Jaipur
Publication Year1985
Total Pages1222
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Literature, & Story
File Size23 MB
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