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________________ उपमिति भव-प्रपंच कथा राजा कनकोदर ने गर्जनापूर्वक अपने सैनिकों को हाक लगाई । विद्याधर योद्धाओं ! शीघ्र तैयार हो जाओ । चटुल गुप्तचर ने मुझे अभी-अभी यह गुप्त संदेश दिया था वह स्पष्टतः प्रत्यक्ष हो गया । चटुल ने बतलाया था कि पुत्री के स्वयंवर मण्डप से क्रोधित होकर मेरे से संभाषण किये बिना ही गये हुये राजा मात्सर्य और द्व ेष से अन्धे होकर आपस में मिल गये हैं । अपने गुप्तचरों द्वारा उन्हें पता लग गया है कि मदनमंजरी का विवाह गुणधारण से हो रहा है । वे समझते हैं कि विद्याधर होने के नाते वे जमीन पर चलने वाले गुरणधाररण से अधिक उत्तम हैं । अतः वे कैसे सहन कर सकते हैं कि उनकी विद्यमानता में मदनमंजरी किसी साधारण पुरुष से विवाहित हो ! इसीलिये वे सब युद्धातुर होकर लड़ने के लिये आये हैं । मेरे वीरों ! जैसे गरुड़ कोनों पर टूट पड़ता है वैसे ही इनके इस प्रह्लादमन्दिर बगीचे में उतरने के पहले ही इन पर टूट पड़ो और इनके मिथ्याभिमान को नष्ट कर इन्हें मिट्टी में मिला दो । मुझे तुम्हारी वीरता पर पूरा विश्वास है, अतः अपनी वीरता दिखाकर स्वामी का मान रखो । [ ६० - ६५ ] ३३२ राजा की रगगर्जना सुनकर वे सभी योद्धा तैयार होकर * जमीन से श्राकाश में चढ़ने को तत्पर हुए। यह दृश्य देखकर मैंने ( गुणधारण) सोचा कि, ओह ! मेरे लिये यहाँ खून की नदियाँ बहे, इन लोगों का विनाश हो, यह तो ठीक नहीं है । [६६-६७] स्तम्भन और शान्ति उसी समय एक अप्रत्याशित घटना घटी, उसे भी सुनें । किसी ने दोनों सेनाओं को स्तम्भित कर दिया । जमीन पर खड़ी कनकोदर की सेना और आकाश में खड़ी विपक्षी विद्याधरों की सेना दोनों चित्रलिखित-सी जहाँ की तहाँ स्तम्भित हो गई, पुत्तलिकाओं के समान स्थिर हो गई। उनका गर्वगर्जन, उनकी सब हलनचलन, यहाँ तक कि आँखों की पुतलियाँ तक भी हिलनी बन्द हो गई । दोनों सेनायें एक दूसरी को निःशब्द और चित्र- लिखित-सी दशा में देखकर आश्चर्य चकित रह गईं । [ε८-१०० ] आकाश स्थित सेना ने मुझे और मदनमंजरी को श्रेष्ठ आसन पर बैठे देखा । मुझे देखकर उन सब के मन में विचार आया - श्रहा ! इस कुमार का कैसा सुन्दर रूप है ! कैसी आकृति है ! क्या कान्ति है ! कैसे सुन्दर गुरण हैं ! कितना धैर्य है ! कितनी स्थिरता है ! अहा ! विचारशीला मदनमंजरी ने सचमुच ही इस महात्मा पुरुष को अपनी परीक्षा के बाद ही पति बनाया है । निःसंदेह इसी महापुरुष ने अपने तेज से हमको स्तम्भित कर दिया है । देखो, यह मदनमंजरी और अपने मित्र के साथ स्वस्थ बैठा है और हम सब स्तम्भित हैं । हमने इस पुरुषरत्न को * पृष्ठ ६६६ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001725
Book TitleUpmiti Bhav Prakasha Katha Part 1 and 2
Original Sutra AuthorSiddharshi Gani
AuthorVinaysagar
PublisherRajasthan Prakrit Bharti Sansthan Jaipur
Publication Year1985
Total Pages1222
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Literature, & Story
File Size23 MB
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