SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 1061
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ २८० उपमिति-भव प्रपंच कथा इसके पश्चात् बालिश श्र ति को वीणा, वेणु, मृदंग, काकली, गीत आदि मधुर स्वर और गायन सुनाने लगा। जब श्रति इससे प्रसन्न होती तो वह प्रमुदित होता और मन में समझता कि वह बहुत सुखी है । इस संसार में उसे स्वर्ग का सुख मिल गया है। वह सचमुच भाग्यवान है कि उसे सततानन्ददायी श्र ति जैसी पत्नी मिली। [६६१-६६२] बालिश दासपुत्र संग को अपने हृदय में स्थापित कर अत्यन्त स्नेह से उसकी चापलूसी करते हुए, सुन्दर मधुर ध्वनि, राग-रागिनियों और वादित्रों के नाद से श्र ति का पालन-पोषण करने लगा। अन्त में वह राग-रागिनियों में इतना डूब गया कि उसने दूसरे सब काम छोड़ दिये, धर्म को दूर से ही नमस्कार किया और छल-छबीला जैसा व्यवहार करने लगा, जिससे वह विवेकीजनों की दृष्टि में हास्यपात्र बन गया। [६६३-६६४] कोविद और श्रुति इधर कोविद ने सदागम से पूछा -- महाराज! श्रति स्वयं चलकर मेरे पास आई और मेरा वरण किया, अतः वह मेरी हितेच्छु है या नहीं ? कृपा कर बतलाइये। सदागम-हे नरोत्तम कोविद ! जब यह तेरी पत्नी दासपुत्र संग के साथ हो तब वह तनिक भी हितेच्छू नहीं है। इसका कारण में बतलाता हूँ, तू सुन ।। रागकेसरी राजा के मंत्री ने पहले संसार को वश में करने के लिये पाँच अधिकारी भेजे थे उनमें से एक यह है। रागकेसरी मोहराजा का पुत्र है और कर्मपरिणाम महाराजा का भतीजा है। रागकेसरी कर्मपरिणाम महाराजा का मंत्री भी है और जगत् प्रसिद्ध लुटेरा भी है। महामोह का तो सारा कार्य यही करता है । सभी लोग विश्वासपूर्वक जानते हैं कि कर्मपरिणाम महाराजा सब से अधिक बलवान, सर्वश्रेष्ठ * और सभी प्राणियों का बुरा-भला करने वाले हैं। यदि लोगों को यह मालूम हो जाय कि श्र ति इस लुटेरे रागकेसरी की पुत्री है, तो कोई उससे विवाह करने को तैयार न हो । अत: रागकेसरी ने अपने विशेष सेवक संग को श्र ति की सेवा में नियुक्त कर दिया है तथा उसको सब गुप्त बातें बताकर पहले से ही यहाँ भेज दिया है । वह श्रति को कर्मपरिणाम की पुत्री बतलाता है, परन्तु वस्तुतः श्रु ति रागकेसरी की ही पुत्री है । दुरात्मा रागकेसरी ने संसार को ठगने के लिये अपनी कन्या को संग के साथ भेजा है, तब वह तुम्हारी हितेच्छू कैसे हो सकती है ? यद्यपि तूने उसे अपनी पत्नी बनाया है, पर वह पति को ठगने वाली है, अत: हे भद्र ! तू कभी उसका विश्वास मत करना । तूने उससे विवाह कर लिया है इसलिये अभी उसका त्याग तो नहीं किया जा सकता, पर उसके दासपुत्र संग से सदा बचकर रहना । * पृष्ठ ६६४ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001725
Book TitleUpmiti Bhav Prakasha Katha Part 1 and 2
Original Sutra AuthorSiddharshi Gani
AuthorVinaysagar
PublisherRajasthan Prakrit Bharti Sansthan Jaipur
Publication Year1985
Total Pages1222
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Literature, & Story
File Size23 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy