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________________ प्रस्ताव ७ : सदागम का सान्निध्य : अकलंक की दीक्षा २७३ महाराजा कर्मपरिणाम को पूछकर संसारी जीव के पास किसी विश्वस्त व्यक्ति को भेजना चाहिये जो वहाँ जाकर उसे हमारे अनुकूल बनावे * और कुछ समय बाद उसके मन में हमें देखने की लालसा उत्पन्न करे। [५६२-५७०] सबोध मंत्री की सम्मति सुनकर चारित्रधर्मराज ने कहा-हे मन्त्रि ! तुमने बहत ही प्रशस्त और उचित परामर्श दिया। अब यह बताओ कि किसको संसारी जीव के पास भेजा जाय ? मंत्री-देव ! मेरे विचार से सदागम को भेजना चाहिये । जब संसारी जीव का सदागम से अधिक परिचय होगा, तब उसमें हमारे दर्शन की इच्छा उत्पन्न होगी। फिर कर्मपरिणाम महाराजा उसका हमसे परिचय करायेंगे, तभी हम शत्रु को नष्ट करने में समर्थ होंगे। [५७१-५७४] चारित्रधर्मराज ने मंत्री के परामर्श को मानकर और सदागम को मेरे पास आने की आज्ञा दी। फिर राजा ने मंत्री से पूछा-यदि सदागम के साथ अपने सेनापति सम्यकदर्शन को भेजा जाय तो कैसा रहेगा ? ___मंत्री-स्वामिन् ! संसारी जीव के पास सम्यक् दर्शन जाय यह तो निःसंदेह बहत ही उत्तम प्रस्ताव है। सम्यकदर्शन साथ हो तभी सदागम भी अपना वास्तविक लाभ प्रदान कर सकता है । ऐसा होने पर हम सब का परिचय उससे हो सकता है । पर, अभी उसे भेजने का अवसर प्राप्त नहीं हुआ है, अतः अभी नहीं भेजना ही ठीक रहेगा। विचक्षण लोग बिना अवसर की प्राप्ति हुए कोई कार्य नहीं करते । [५७५-५७६] चारित्रधर्मराज-हे मन्त्रिन् ! तब उसको भेजने का अवसर कब प्राप्त होगा? मंत्री-देव ! इस सम्बन्ध में मेरे विचार आपके समक्ष प्रस्तुत करता हूँ, आप सुनें । अभी सदागम संसारी जीव के पास जाकर रहे और उसे भली प्रकार अपना बनाले । उसके पश्चात् अवसर देखकर सम्यकदर्शन को भेजेंगे, क्योंकि सदागम के पास रहने से जब संसारी जीव उससे परिचित होगा और उसमें जब स्वयं की शक्ति उत्पन्न होगी तभी सम्यकदर्शन का उसके पास जाना उचित रहेगा। मंत्री की राय को मानकर राजा ने सदागम को मेरे पास भेज दिया। [५८०-५८३] इधर महामोह राजा ने तो पहले से ही अपने विश्वस्त अधिकारी ज्ञानसंवरण को मेरे पास भेज रखा था। इसने चारित्रधर्मराज की पूरी सेना को पर्दे के पीछे छिपा रखा था और महामोह की सेना की सहायता एवं पोषण कर रहा था । ज्ञानसंवरण के प्रभाव से महामोह की सेना भयरहित थी और सभी निश्चिन्त होकर आनन्द में बैठे थे। अब जैसे ही इस ज्ञानसंवरण ने सदागम को मेरे पास आते देखा, वह डर के मारे छिप कर बैठ गया। [५८४-५८७] • पृष्ठ ६५८ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001725
Book TitleUpmiti Bhav Prakasha Katha Part 1 and 2
Original Sutra AuthorSiddharshi Gani
AuthorVinaysagar
PublisherRajasthan Prakrit Bharti Sansthan Jaipur
Publication Year1985
Total Pages1222
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Literature, & Story
File Size23 MB
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