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________________ ५१६ [ कल्याणकलिका-प्रथमखण्डे छे. सूर्य वा चन्द्र बेमाथी एक बलवान थइने लाभ स्थानमा रह्या होय तो गुणसागर योग थाय छे. पुष्यस्याऽथ द्वितीयांश-संस्थितौ चन्द्रवाक्पती। बिजयो नाम योगोऽयं, समरे विजयप्रदः ॥४८१॥ परमोचगतोऽप्येको, जीवो वा ज्ञः सितोऽपि वा। ब्रह्मदण्डो महायोगः, सर्वदोषविनाशकृत् ॥४८२॥ मूलत्रिकोणगाः सौम्या, भवन्ति यदि वा शशी। प्रभंजनो महायोगस्त्वथवापि तदंशगाः ॥४८३॥ मूलत्रिकोणगाः पापा-स्त्रियष्ठायगता यदि । इन्द्रदण्डो महायोगस्तदंशकगतो अपि ॥४८४॥ मुहुर्तश्चाष्टमः शश्वदभिजिद्योगसंज्ञकः । गुणानामधिपः सेोऽपि, मध्यंदिनगते रवी ॥४८५॥ भा०टी०-पुष्य नक्षत्रना प्रथम चरणमा चंद्र अने द्वितीयमां बृहस्पति रहेला होय छे त्यारे युद्धमा विजय आपनारो विजययोग बने छे. गुरु बुध के शुक्र पैकीनो कोइ पण एक ग्रह परम उच्च अंशमां होय छे त्यारे सर्वदोषनाशक ब्रह्मदंड योग उत्पन्न थाय छे. सौम्य ग्रहो मूलत्रिकोणना होय अथवा चंद्र मूलत्रिकोणमां होय अथवा मूलत्रिकोणना अंशमां होय तो प्रभंजन महायोग बने छे. पापग्रहो मूलत्रिकोण अंथवा मूलत्रिकोणना अंशोमा रहेला होय अथवा तो श्रीजे छठे के अग्यारमे होय त्यारे इन्द्रदण्ड महायोग बने छे. दिवसनो आठमो मुहूर्त के जे सूर्य मध्याह्नमां आवे त्यारे आवे छे ते अभिजिद्योग सर्वगुणोनो नायक गणाय छे. अथ वसिष्ठोक्ता अशुभयोगाः वार-नक्षत्रजन्य अशुभयोग दिदैव-जल-वस्वन्त्य-ब्रह्मज्यार्यमतारकाः। उत्पातयोगा विज्ञेया, भानुवारादिषु क्रमात् ॥४८६।। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001722
Book TitleKalyan Kalika Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKalyanvijay Gani
PublisherK V Shastra Sangrah Samiti Jalor
Publication Year1987
Total Pages702
LanguageSanskrit, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Ritual_text, Ritual, Shilpvastu, & Muhurt
File Size11 MB
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