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________________ प्रस्तावना ३१ नी वृद्धि ए चैत्य कराववानी संक्षेपमा विधि छे, हवे प्रत्येक विध्यगोने समजावे छे. “शुद्धातु वास्तुविद्या-विहितासन्यायतश्च योपाता। न परोपतापहेतुश्च, सा जिनेन्द्रैः समाख्याता ॥" अर्थ--जे भूमि शिल्पशास्त्रे ग्राह्य कही होय, जे उत्तमन्यायथी मेलवेली होय, अने जे कोइने संताप कारणी न होय तेवी भूमिने जिनेश्वरोए शुद्ध कही छे. "शास्त्रबहुमानतः खलु, सच्चेष्टातश्च धर्मनिष्पत्तिः। परपीडात्यागेन च, विपर्ययात् पापसिद्धिरिव ।।" अर्थशास्त्रबहुमानथी, शुभ प्रवृत्तिथी अने परपीडाना परि. हारंथी ज धर्मनी सिद्वि थाय छे, जेम एथो विपरीत वर्तवाथी वापनी सिद्धि थाय छे. “तत्रासन्नोपि जनोऽसंबन्ध्यपि दानमानसत्कारैः। कुशलाशयवान् कार्यों, नियमाद् बोध्यंगमयमस्य॥" अर्थ---जमीन साथे संबन्ध न होय एवा तेनी नजीकमा रहेनारा मनुष्यने पण दान मान सत्कारो वडे शुभ परिणामी बनाववो, आ निमित्ते शुभाशय उत्पन्न थवो एज तेनी धर्मप्राप्तिनुं अंग बने छे. " दलमिष्टकादितदपिच, शुद्ध तत्कारिवगतः क्रीतम् । उचितक्रयेण यत् स्या-दानीतं चैव विधिना तु ॥ दार्वपि च शुद्धमिह यत्नानीतं देवताद्युपवनादेः । प्रगुणं सारवभिनव-मुच्चैयन्थ्यादिरहितं च ॥" " सर्वत्र शकुनपूर्व, ग्रहणादावत्र वर्तितव्यमिति । पूर्णकलशादरुप-श्चित्तोत्साहानुगः शकुनः ॥" अर्थ-'दल' एटले इंट. पत्थर वगेरे पण तेना मालेक, पासेथी याग्य मूल्य आपीने लोधेल अने विधि पूर्वक लावेल होय ते शुद्ध Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001722
Book TitleKalyan Kalika Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKalyanvijay Gani
PublisherK V Shastra Sangrah Samiti Jalor
Publication Year1987
Total Pages702
LanguageSanskrit, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Ritual_text, Ritual, Shilpvastu, & Muhurt
File Size11 MB
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