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________________ (पं०-) तदभ्युपगमे त्यादि । 'तदभ्युपगमवतामपि' = सर्वप्रदीपा भगवन्तो, न पुनर्विवक्षितसंज्ञिमात्रस्यैवेत्यङ्गीकारवतामपि । न केवलं प्रागुक्तान्धकल्पलोकस्येति 'अपि' शब्दार्थः । तत्त्वोपलम्भशून्यप्रवृत्तिसिद्धरित्युत्तरेण योगः । कुत इत्याह 'तथाविधलोकदृष्टयनुसारप्राधान्यात्''तथाविधः' = परमार्थतोऽसत्यऽपि तथारूपे वस्तुनि बहुरूढव्यवहारप्रवृत्तः स चासौ लोकश्च तथाविधलोकः, तस्य दृष्टिः = अभिप्रायो व्यवहारनय इत्यर्थः, तस्य अनुसारः = अनुवृत्तिः; तस्य प्राधान्यात् । इदमुक्तं भवति - सर्वप्रदीपत्वाभ्युपगमे भगवतां लोकव्यवहार एव प्राधान्येनाभ्युपगतो भवति, न वस्तुतत्त्वमिति । लोकव्यवहारेण हि तथा प्रदीपः प्रदीप एव, नाप्रदीपोऽपि, कटकुड्यादीनामेवाप्रदीपत्वेन रूढत्वात्, तथा भगवन्तोऽपि सर्वप्रदीपा एव, न तु केषाञ्चिदनुपयोगादप्रदीपा अपि । ऋजुसूत्रादिनिश्चयनयमतेन तु यद् यत्र नोपयुज्यते तत् तदपेक्षया न किञ्चिदेव; यथाह मङ्गलमुद्दिश्य भाष्यकार : प्र०-भगवान प्रदीप जैसे हैं इस कथन से तो सहज यह माना जा सकता है कि वे सब के लिए प्रदिप जैसे है। ऐसी मान्यता रखने में कोई आपत्ति हो सकती है? उ०-हाँ, भगवान को अंध व्यक्तियों के प्रति प्रदीप माननेवालों की तरह सर्व के प्रति प्रदीप माननेवालों को भी यह आपत्ति आती है कि फिर ऐसी स्तुति करने की प्रवृत्ति तत्त्व-समझ रहित सिद्ध होगी। क्यों कि स्तुति योग्य परमात्मा में उसके अनुसार सब के प्रति प्रदीप का कार्य करने का कार्य देखा नहीं है फिर भी सर्व के प्रदीप के रूप में स्तुति-प्रवृत्ति की गई ! ऐसी स्तुति करने में तो लोक-दृष्टि ही मुख्यतः रहेगी। लोकदृष्टि क्या है ? परमार्थ से असत् वस्तु के ज्ञापक ऐसे अतिरुढ़ व्यवहार में प्रवर्तक लोक का अभिप्राय । उसका अनुसरण करना यह मुख्य माना गया, परन्तु वस्तु-तत्त्व यानी वास्तविक वस्तुस्थिति को नहीं। वास्तविक वस्तुस्थिति तो यह है कि परमात्मा की वाणी का योग पा कर केवल विशिष्ट संज्ञी भव्य जीव ही बोध पाते हैं। अतः उसके लिए ही परमात्मा प्रदीप तुल्य हैं । तो उसके अनुसार ही स्तुति करनी चाहिए। लेकिन यहाँ इस चीज को स्वीकार न करनेवाला और सर्वप्रदीप रूप में स्तुति करनेवाला मनुष्य लोकव्यवहार को ही मुख्य मानता है, ऐसा माना जायेगा। क्यों कि लोक-व्यवहार कहता है कि "भाई ! दीपक वह दीपक ही है, अदीपक नहीं है। अदीपक के रूप में तो घट, दीवार इत्यादि ही प्रचलित हैं। इसी तरह यदि भगवान प्रदीप है तो सर्व के लिए प्रदीप ही हैं, तब जिन्हें उनका उपयोग नहीं है, उनके लिए भी प्रदीप ही हैं अप्रदीप नहीं हैं।" यह व्यवहार नय की बात हुई। निश्चयनये प्रदीप अर्थात् अंध के प्रति प्रदीप नहीं : परंतु ऋजुसूत्रादि निश्चयनय मत के हिसाब से जिसका जहाँ कोई उपयोग न हो वहाँ वह उसकी अपेक्षा से कोई वस्तु ही नहीं है। जैसे कि, मंगल को ले कर विशेषावश्यक भाष्य के रचयिता कहते हैं कि "ऋजुसूत्र नयमत से तो जो मंगल अपना है, और वह भी वर्तमान है, यानी सत् है, वही एक मंगल है, परन्तु परकीय मङ्गल या भूत-भविष्य का असत् मंगल वह मंगल नहीं है। जैसे कि गधे का शींग बिलकुल असत् है, अवर्तमान है, तो वह अपने लिए कोई चीज नहीं है; एवं परधन अपने लिए अनुपयोगी होने से अपनी दृष्टि से कोई चीज नहीं है, अर्थात् वह धन ही नहीं है, अ-धन है; इसी प्रकार भगवान भी प्रदीप के रूप में मर्यादित संख्या के अमुक संज्ञी जीवो के सिवा अन्य के उपयोग में न आने के कारण, अंध के समान अन्य लोगों के लिए वे अप्रदीप ही हैं। इस वस्तुस्थिति का अनुसरण करना चाहिए, - ऐसा निश्चयनय का मत है। गुरु-लघु भाव का विचार :---- AT १२० Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001721
Book TitleLalit Vistara
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorBhuvanbhanusuri
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year
Total Pages410
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Literature, & Religion
File Size11 MB
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