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________________ १२४ कषाय : एक तुलनात्मक अध्ययन (३) भिक्षाचरी या वृत्तिपरिसंख्यान : लोभ की मन्दता भिक्षा प्राप्ति के लिए मन में विविध प्रकार के अभिग्रहों (संकल्पों) को धारण करना वृत्ति परिसंख्यान तप है। १५२ आचारांग में भिक्षाचरी तप के प्रसंग में प्रतिज्ञापूर्वक सात पिण्डैषणा और सात पानेषणाओं की चर्चा की गई है। १५३ इसी अभिग्रहपूर्वक वस्त्र, पात्र, शय्या के सन्दर्भ में भी वृत्ति परिसंख्यान तप का विवेचन उपलब्ध होता है। वत्ति-परिसंख्यान का अर्थ द्रव्य-संक्षिप्तता से भी किया गया है। भोज्यद्रव्यों की संख्या का निर्धारण करना। १५४ इस तप में लोभ कषाय को मन्द करने की प्रक्रिया की जाती है। लोभ कषाय इष्ट-पदार्थों को अधिकाधिक संख्या में ग्रहण की प्रेरणा देता है। आहार ग्रहण करते समय मन कभी मिठाई में, कभी नमकीन में, कभी पूड़ी में, कभी चावल में, कभी अचार में और कभी चटनी में घूमता है। मन की इस चंचलता को समाप्त करने हेतु वृत्ति-परिसंख्यान तप है। (४) रस-परित्याग : रस-लोलुपता का त्याग दूध, दही, घी आदि रसों को प्रणीत पान भोजन कहते हैं। १५५ आचारांग के अनुसार- प्रणीत रसयुक्त आहार-पानी का त्याग करना रसपरित्याग है। १५६ काम-विकारों के शमन, रागभाव के दमन, ब्रह्मचर्य व्रत के परिपालन हेतु से यह तप किया जाता है। मादक, गरिष्ठ पदार्थों के सेवन से उन्माद, अभिमान आदि विकार पुष्ट होते हैं। षट्रसों के त्याग से रसलोलुपता के संस्कार शिथिल होते हैं। (५) कायक्लेश : अनासक्ति की परीक्षा शीत, ताप, वर्षा आदि कष्टों को विशेष रूप से सहने का अभ्यास करना एवं अनेकानेक आसनों द्वारा शरीर को स्थिर करना कायक्लेश तप है। १५" ऊर्ध्वस्थान वृक्षासन आदि अनेक आसनों का आगमों में उल्लेख प्राप्त होता है। १५८ वस्तुतः आसक्ति-अनासक्ति की परीक्षा, कायक्लेश तप है। अपने भावों की सम्यक् पहचान प्रतिकूलता में होती है। प्रतिकूलता में सामान्य व्यक्ति बौखला जाता है, क्रोधित हो जाता है, तनाव और बैचेनी का अनुभव करता है। सामान्य-सामान्य विपरीत परिस्थिति में चित्त सन्तुलन डगमगा जाता है। समय १५२. उत्तराध्ययनसूत्र/३०/२५ १५६. आचारांगसूत्र/२/१५ १५३. आचारांगसूत्र/२/१/११/६२ १५७. उत्तराध्ययनसूत्र/३०/२७ १५४. उत्तराध्ययनसूत्र/३०/२५ की टीका १५८. आचारांगसूत्रा/१/५/५/शा लोक १५५. उत्तराध्ययनसूत्र/३०/२६ टीका/पत्रांक १९८ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001719
Book TitleKashay
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHempragyashreeji
PublisherVichakshan Prakashan Trust
Publication Year1999
Total Pages192
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Kashaya
File Size11 MB
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