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________________ कषाय और कर्म ( १०-११ ) राग और द्वेष - जब किसी पदार्थ या प्राणी के प्रति लगाव या आकर्षण पैदा होता है, तो उसे राग कहते हैं तथा जब घृणा या विकर्षण पैदा होता है, तो उसे द्वेष कहते हैं । संसार भ्रमण का मूल कारण है राग । जीव राग में सुख मानता है, वस्तुतः जहाँ राग है, वहाँ दुःख है । राग के कारण अज्ञानी जीव किसी व्यक्ति, किसी पदार्थ को अपना मानता है। देह - राग से देह - चिन्ता करता है, परिवार-राग से उनके पालन-पोषण के लिए जिन्दगी भर लगा रहता है, पदार्थ - राग से संग्रह करता है। राग के तीन भेद हैं- ( १ ) स्नेहराग- कोई विशिष्ट गुण न होने पर भी जिसकी तरफ मन खिंचता है । ० (२) कामराग - जिसके साथ संसारसुख भोगने की इच्छा हो । ( ३ ) दृष्टिराग- अपनी पकड़ी हुई मान्यता का ६९ ७० आग्रह | १०५ स्नेहराग दो प्रकार का होता है- ( १ ) प्रशस्त; और ( २ ) अप्रशस्त । जो राग भव-भोग की स्पृहा से पैदा नहीं होता, निराशंस भावयुक्त होता है, वह प्रशस्त स्नेहराग है। शिष्य का गुरु के प्रति स्नेहराग होता है; किन्तु केन्द्र में आत्महित का भाव होता है। निःस्वार्थ प्रेम से पापबन्ध नहीं अपितु लोकोत्तर पुण्यबन्ध होता है। परमसुखी अर्थात् परमात्मा की सेवा तथा परम दुःखी की सेवा में भी राग तत्त्व है, प्रेम भाव है, पर वह परम्परा से आत्म-विशुद्धि का कारण है। परम प्रभु महावीर से गौतम का स्नेहराग प्रसिद्ध दृष्टान्त है । " महावीर ने गौतम से कहा था- 'हे गौतम! तुम मेरे प्रति अनुराग का त्याग कर दो । विशाल महासमुद्र को पार कर अब किनारे पर क्यों खड़े हो ? जिस प्रकार शरत्कालीन कुमुद पानी से लिप्त नहीं होता, उसी प्रकार तुम भी अपने स्नेह को विच्छिन्न करो।' गौतम स्वामी को भोगासक्ति नहीं, अपितु प्रभु के प्रति प्रशस्त राग था । अप्रशस्त स्नेहराग- परिवार पालन-पोषण भी व्यक्ति का दायित्व होता है; किन्तु वह आत्महित में साधक नहीं है। कामराग एवं दृष्टिराग में लोभ एवं मान की अधिकता है । इच्छा भी राग का एक रूप है । भोगेच्छा का संस्कार जन्म-जन्मान्तर चलता है । राग जब द्वेष रूप में रूपान्तरित होता है, तो वह भी जन्म-जन्मान्तर चलता है । द्वेष का स्वतन्त्र अस्तित्व नहीं है, राग को महत्त्व न मिलने से वह द्वेष रूप परिवर्तित हो जाता है। ऐसे कितने उदाहरण हैं, जिनमें जन्म-जन्मान्तर तक राग-द्वेष के संस्कारों के अनुसार जीवन परम्परा चलती ६९. (अ) प्रशमरति (ब) प्रतिक्रमणसूत्र ७१. उत्तराध्ययन/अ. १०/गा. २८ उत्तराध्ययन/अ. २३ / गा. ४३ ७०. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001719
Book TitleKashay
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHempragyashreeji
PublisherVichakshan Prakashan Trust
Publication Year1999
Total Pages192
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Kashaya
File Size11 MB
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