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________________ ६. ६.१३ ] हिन्दी अनुवाद १४५ चूर-चूर कर डालने में समर्थं योद्धागण, प्राणोंके समान प्रिय पुत्र एवं मित्रजन मेरे ही हैं किन्तु वह एक भी क्षण सुधर्मका सेवन नहीं करता ।" घत्ता - " मैंने दुर्लभ कुल, बल, लक्ष्मी, सम्मान और तदनुसार ही सुरम्य नरजन्म प्राप्त किया है । " ॥ १२१ ॥ राजा प्रजापति मुनिराज पिहिताश्रवसे दीक्षित होकर तप करता है और मोक्ष प्राप्त करता है "उत्तम पुत्र व कलत्रोंके महान् सुख, हितकारी राज्य एवं प्रमुख विग्रह आदि, नर जन्मके समस्त फलों को मैंने प्राप्त कर लिया, इस प्रकार चंचल संसारको ( अपना ) मानते हुए अब मैं यहाँ नहीं रह सकता, हे पुत्र, मैं तो अब वहाँ जाना चाहता हूँ जहाँ अपने परम लक्ष्य (मोक्ष) की साधना कर सकूँ ।" इस प्रकार बोलकर प्रवर लक्ष्मीगृह ( राज्यलक्ष्मी ) को ठुकराकर पृथिवीका राज्य पुत्रको अर्पित कर, काम विजेता मुनिवर पिहिताश्रव के चरण-कमलोंमें प्रणाम कर उनसे दया- धर्मं से अभिभूत सात सौ नरेश्वरोंके साथ तप धारण कर लिया । पोदनपुरनाथने तपश्रीका वरण कर जिनेन्द्रभणित आगमोंके भावोंका स्मरण कर घातिया चतुष्कोंको घातकर केवलज्ञान प्राप्त कर अष्ट कर्मोंके पाश-बन्धनका दलनकर कर्म- प्रकृतियोंसे च्युत होकर वे प्रजापति नरेश महेन्द्रों द्वारा स्तुत आठवें माहेन्द्र स्वर्ग में उत्पन्न हुए । और इधर, वह हरि - त्रिपृष्ठ अपनी पुत्री द्युतिप्रभाको यौवनश्रीसे समृद्ध देखकर | घत्ता - अपने मनमें बारम्बार चिन्ता करने लगा कि इस कन्याके योग्य, अजेय एवं श्रेष्ठ गुणोंसे युक्त वर कौन होगा ? ॥ १२२ ॥ ६ त्रिपृष्ठको अपनी युवती कन्याके विवाह हेतु योग्य वरके खोजनेको चिन्ता पुत्रीकी चिन्तासे आकुल चित्तवाले हरि ( त्रिपृष्ठ ) ने अन्य मन्त्रियोंके साथ तत्काल ही प्रवर गुणोंसे युक्त हलधर ( विजय ) को मन्त्रणा - गृहमें ( बुलाकर तथा ) माथेपर हाथ रखकर प्रणाम करते हुए कहा - " आप पिताजी के सम्मुख भी कुलके उद्धारक तथा हमारे सुखोंका विस्तार करनेवाले थे, तब अब तो पिताके ( गृहत्याग कर देनेपर उनके ) सन्तोषके लिए आप ही हमारे लिए विषमकालमें सुबुद्धि देनेवाले हैं । आप ही हमारे लिए तिमिर-समूहको हरनेवाली सूर्य किरणें ५ हैं, जनपदोंको समस्त पदार्थोंका दर्शन करानेवाले तथा प्रभुपदोंकी आराधना करानेवाले हैं । आप सबके जानकार हैं अतः विचार कर कहिए कि आपकी पुत्री ( भतीजी ) के योग्य महानरों अथवा विद्याधरों में कुल, रूप, कला आदिमें श्रेष्ठ वर कौन हो सकता है ?" तब वह संकर्षण -- बलदेव अपनी गल-गर्जनासे गगनांगनको भरता हुआ बोला १० "कोई छोटा भी हो, किन्तु राज्य लक्ष्मी तथा सौन्दर्यमें जो अधिक है वह श्रेष्ठ ही माना १० जायेगा । इस विषय में वय भावकी समीक्षा नहीं की जाती । यह जनाकर भी उस गुणरक्षिता कन्या के लिए ( वर चुनाव के लिए ) आप ही हम लोगों की अपेक्षा प्रवर-गतिवाले कुलदीपक एवं अनन्य लोचन स्वरूप हैं | घत्ता - जिस प्रकार आकाशमें चन्द्रकलाके समान सुन्दर अन्य नक्षत्र नहीं हो सकता, उसी प्रकार अपनी दुहिताके लिए कहीं भी कोई भी योग्य वर दिखलाई नहीं देता || १२३ || १९ Jain Education International For Private & Personal Use Only १५ www.jainelibrary.org
SR No.001718
Book TitleVaddhmanchariu
Original Sutra AuthorVibuha Sirihar
AuthorRajaram Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1975
Total Pages462
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, Literature, & Religion
File Size9 MB
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