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________________ १.७. १२] हिन्दी अनुवाद घत्ता-अतिप्रिय वाणी बोलनेवाले उस राजा नन्दिवर्धनकी सिद्धि ( मुक्ति ) के समान वीरवती नामकी प्रिया थो। जिस प्रकार मनके व्यापारसे सिद्धि प्राप्त होती है, उसी प्रकार मानो २० उस वीरवती के अनुराग से उसे भी समस्त सिद्धियाँ प्राप्त थीं ।। ५ ॥ रानी वीरवतीका वर्णन । उसे पुत्र-प्राप्ति महासमुद्रकी लावण्यमयी तरंगके समान, अथवा कामदेवकी मूर्तिमति विजयश्रीके समान, मनीश्वरोंकी श्रेष्ठ करुणाके समान अथवा सुरेश्वरको सुन्दरतर इन्द्राणीके समान सुन्दर उस रानी वीरवतीसे राजा नन्दिवर्धन उसी प्रकार सुशोभित था, जिसप्रकार करमंजरी (प्रभासमूह )से पद्मरागमणि, नवमंजरीसे आम्रवृक्ष तथा विद्युल्लतासे अभिनव मेघ सुशोभित होते हैं। जो अपने प्रियतमसे भी लज्जाशील होकर बोलती थी, सौन्दर्यकी श्रीके समान वह वीरवती ऐसी ५ प्रतीत होती थी, मानो कामदेवकी लीलाओंसे परिपूर्ण पत्नी-रति ही हो। अथवा ऐसा प्रतीत होता था मानो वह कामदेवके बाणोंकी पंक्ति ही हो अथवा कामदेवकी प्रकटरूपमें शक्ति ही हो। जो प्रेमी जनोंके मनको हरण करनेके लिए सुर-सुन्दरी के समान थी, जो जिनेन्द्रके चरणकमलोंमें रत रहनेवाली भ्रमरी थी, जिसका अंग स्तनोंके पसीनेसे आलिंगित रहता था, अपनी मन्थरगतिसे जिसने वन-मतंगको जीत लिया था, जो सुभग थी, सुहासिनी तथा अत्यन्त स्वरूप- १० वती थी, जो विज्ञान एवं विनय आदि सद्गुणोंकी सारभूमि थी, जिसके पास अनेक आभरण थे, फिर भी जिसका परमश्रेष्ठ आभरण निर्मल शील ही था। घत्ता-राजा नन्दिवर्धनके मनमें अनुराग उत्पन्न करनेवाला तथा कामदेवके समान सुन्दर शरीरवाला एक पुत्र उत्पन्न हुआ। वह ऐसा प्रतीत होता था मानो प्रभातके समय पूर्वदिशामें अरुण छविवाला सूर्य ही उदित हुआ हो ॥ ६ ॥ १५ राजकुमार नन्दनका जन्मोत्सव । एक नैमितिक द्वारा उसके असाधारण भविष्यको घोषणा उस पुत्रके जन्मके समयसे हो आकाश स्वच्छ एवं दिशाएँ निर्मल हो गयीं। पृथिवीमण्डल प्रमुदित हो उठा। मन्द एवं सुगन्धित वायु बहने लगी। कारागारोंसे बन्दीजनोंको मुक्त कर दिया गया। दृढ़ भुजाओंवाले उस पुत्रके निमित्त राजा नन्दिवर्धनने (जन्मकालके ) दशवें दिन जिनेन्द्रकी पूजा-अर्चा रचाई तथा 'यह पूत्र सर्वाङ्गीण एवं हर्ष प्रदान करनेवाला है', यह जानकर राजा ( नन्दिवर्धन ) ने यह कहकर उसका 'नन्दन' नामकरण किया कि-"यह बालक विद्या- ५ कला रूपी अंगोंसे अलंकृत है, अपने शरीरकी कान्तिसे भी सूर्यको जीतनेवाला है, इसकी हथेलियाँ हल, कलश आदि चिह्नों से अलंकृत हैं। अपने शुभ्र यशसे वह धरणीतलको धवलित करेगा। यह धीर शत्रु-पत्नियोंको वैधव्य प्रदान करनेमें समर्थ रहेगा तथा अकेले ही यह वीर शत्रु-सैन्यका विध्वंस करेगा। उत्तम यौवन-श्रीसे इसका शरीर भूषित रहेगा, अपराधरूपी मेघोंके क्षय करनेके लिए यह पवनके समान होगा। यह शिशु लावण्यरूपी जलका समुद्र होगा। १० शरणागतोंकी रक्षा करनेमें वह विशाल-हृदय होगा।" समरभूमिमें विचरण करने में कुशल वह राजकुमार नन्दन दूसरे राजकुमारों तथा अपने सहचरोंके साथ पत्ता-अन्य दूसरे दिन अपने पिताकी आज्ञा लेकर तथा उन्हें नमस्कार कर सूर्योदय होते ही नेत्रोंको आनन्दित करनेवाले नन्दनवन में क्रीडा हेतु गया ॥७॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001718
Book TitleVaddhmanchariu
Original Sutra AuthorVibuha Sirihar
AuthorRajaram Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1975
Total Pages462
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, Literature, & Religion
File Size9 MB
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