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________________ २२० द्वार २०५ यहाँ अपर्याप्ता, शरीर-पर्याप्ति की अपेक्षा से समझना। आहारपर्याप्ति की अपेक्षा से अपर्याप्ता जीव अनाहारक ही होते हैं। अन्यमतानुसार-अपने योग्य पर्याप्तिओं से अपर्याप्ता जीव को ओजाहार होता है। यहाँ पर्याप्ता जीव शरीर-पर्याप्ति की अपेक्षा से अथवा अपने योग्य पर्याप्ति की पूर्णता कर लेने मे जो पर्याप्ता बन चके हैं वे लेना चाहिये। एकेन्द्रिय को कवलाहार मुँह का अभाव होने से नहीं होता। देवता और नारकी वैक्रिय-शरीरी होने से स्वभावत: ही कवलाहारी नहीं होते। देवता अपर्याप्ता अवस्था में ओज-आहारी और पर्याप्ता अवस्था में मनोभक्षी होते हैं। मनोभक्षी = विचारमात्र से संप्राप्त तथा सभी इन्द्रियों को आह्लादजनक मनोज्ञ-पुद्गलों को आत्मसात् करते हैं। जैसे शीत योनिज को शीत-पुद्गल और उष्ण योनिज को उष्ण-पुद्गल मिलने से आत्मतृप्ति होती है, वैसे देवों को भी मनोज्ञ-पुद्गल आत्मसात् करने पर आत्मतृप्ति और अभिलाषा की निवृत्ति होती है। अत: वे मनोभक्षी कहलाते हैं। नारकी अपर्याप्ता अवस्था में ओज-आहारी और पर्याप्तवास्था में लोमाहारी होते हैं, किन्तु देवों की तरह मनोभक्षी नहीं होते। मनोभक्षण का अर्थ = तथाविध शक्ति के द्वारा अपने शरीर को पुष्ट करने वाले पुद्गलों को मन से ग्रहण कर आत्मतृप्ति एवं आत्म-संतोष को प्राप्त करना । नरक के जीवों में अशुभ-कर्म के उदय से ऐसी शक्ति नहीं होती। देवों का मनोभक्षण रूप आहार दो तरह का होता है (i) आभोग निवर्तित-जो इच्छापूर्वक खाया जाये। यह आहार पर्याप्ता अवस्था में ही होता है, क्योंकि 'मैं अमुक पदार्थ खाऊँ,' ऐसी इच्छा पर्याप्तावस्था में ही हो सकती है। (i) अनाभोग निवर्तित—जो खाने की विशिष्ट इच्छा के बिना ही खाया जाये, जैसे वर्षा ऋतु में शीतपुद्गलों का अनायास शरीर में प्रवेश होना। यह आहार अपर्याप्ता देवों में होता है, कारण उस समय मनपर्याप्ति न होने से आहार की विशिष्ट इच्छा नहीं हो सकती ॥११८०-११८४ ॥ ____ आहार-श्वासोच्छ्वास कालमान-जिस देव की आयु जितने सागरोपम की होती है, वह उतने पक्ष के बाद श्वासोच्छ्वास लेता है, तथा उतने हजार वर्षों के बाद उसे आहार की अभिलाषा होती है । उदाहरण के तौर पर एक सागर की आयुष्य वाला देव एक पक्ष के बाद श्वासोच्छ्वास लेता है और एक हजार वर्ष के बाद आहार ग्रहण करता है। जैसे-जैसे आयुष्य बढ़ती जाती है, वैसे-वैसे आहार और श्वासोच्छ्वास का अन्तर बढ़ता जाता है । देव जितनी अधिक आयु वाले होते हैं, वे उतने अधिक सुखी होते हैं। जबकि उच्छ्वास और आहार क्रिया क्रमश: दुःख, अतिदुःख रूप है। अत: अधिक आयु वाले देवों के उच्छ्वास और आहार का विरह काल अधिक, अधिकतर होता है। आहार और उच्छ्वास सिवाय के समय में देवता बाधा रहित और स्मितवदन रहते हैं। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001717
Book TitlePravachana Saroddhar Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHemprabhashreeji
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year2000
Total Pages522
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Principle
File Size8 MB
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