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________________ प्रवचन-सारोद्धार ३५७ 2.15000205544004-0 अणणुन्नाए पंचहिवि उग्गहि कप्पइ न ठाउं ॥६८४ ॥ -गाथार्थपाँच प्रकार का अवग्रह-१. देवेन्द्र, २. राजा, ३. गृहपति, ४. सागारिक एवं ५. स्वधर्मी इन पाँच से सम्बन्धित ५ अवग्रह हैं। मुनि को इनके अवग्रह में अनुमति लेकर ही रहना कल्पता है।।६८१ ।। १. दक्षिण दिशा के अधिपति इन्द्र की, २. भरत क्षेत्र में छः खण्ड के अधिपति भरत राजा की, ३. देश के नायक-गृहपति की, ४. शय्यातर गृहस्थ की तथा ५. स्वधर्मी-आचार्य की, जिसका चातुर्मास उस क्षेत्र में हुआ हो। दो महीने तक वह क्षेत्र उनका अवग्रह माना जाता है-इन पाँचों की अनुमति के बिना इनके अवग्रह में रहना साधु को नहीं कल्पता है ।।६८२-६८४ ।। -विवेचन अवग्रह-क्षेत्र, निवासयोग्य वसति आदि। . १. देवेन्द्र का अवग्रह-तिरछा लोक के मध्य-भाग में मेरु-पर्वत है। मेरु के ऊपरवर्ती मध्यभाग में ऊपर से नीचे प्रतररूप और तिरछी एक प्रदेश वाली एक श्रेणि है। यह श्रेणि लोक को उत्तर और दक्षिण दो भागों में विभक्त करती है। दक्षिण भाग का अधिपति शक्रेन्द्र है और उत्तरभाग का अधिपति ईशानेन्द्र है। लोक के दक्षिण भाग में रहने वाले मुनि शक्रेन्द्र से अवग्रह की याचना करे और उत्तर में रहने वाले मुनि इशानेन्द्र से अवग्रह की याचना करे । २. राजा का अवग्रह–चक्रवर्ती, राजा आदि के स्वामित्व वाला क्षेत्र। चक्रवर्ती का स्वामित्व ऊपर क्षुल्लहिमवान् पर्वत पर चौंसठ योजन पर्यंत, सूत्रकार के मतानुसार बहत्तर योजन तक है। नीचे गर्त, अवटादि पर्यंत, तिरछा मागध आदि तीर्थ के उस भाग तक जहाँ तक कि चक्रवर्ती का बाण जाता है। जिस क्षेत्र में जिस समय जो चक्रवर्ती हो उसके अधिपत्य वाले क्षेत्र में मुनि को जो भी व्यवहार करना हो उसके लिये स्वामी का अवग्रह अवश्य माँगना चाहिये। ३. गृहपति का अवग्रह-देश का स्वामी गृहपति कहलाता है। जिस देश में मुनि रहते हों, उस देश के अधिपति का अवग्रह माँगकर ही वहाँ ठहरना चाहिये। ४. सागारिक का अवग्रह-शय्यातर-वसति का मालिक। वसति जिस मालिक की हो उसके पास जाकर वसति की याचना करने के बाद ही वसति में ठहरना चाहिये। यह तिर्यग् दिशा सम्बन्धी अवग्रह है। अधोदिशा में वापी, कूप, भूमिगृह तक गृहपति और सागारिक दोनों का अवग्रह माना जाता है। ऊर्ध्व दिशा में पर्वत, वृक्ष के शिखर पर्यन्त पूर्वोक्त दोनों का अवग्रह माना जाता है। ५. साधर्मिक का अवग्रह–साधर्मिक = समान धर्म वाले। जैसे, कोई मुनि किसी गाँव में गया और वहाँ कोई आचार्य आदि पहले से स्थित है और उन्होंने चार्तुमास भी वहीं किया हो तो उस गाँव के आस-पास का क्षेत्र उनका अवग्रह कहलाता है। काल से चातुर्मास के बाद दो महिने तक उनका Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001716
Book TitlePravachana Saroddhar Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHemprabhashreeji
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year1999
Total Pages504
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Principle
File Size8 MB
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