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________________ ३१८ अणुचरगे परिहारियपरिट्ठिए जाव छम्मासा ||६०६ ॥ कम्पओिऽवि एवं छम्मासतवं करेइ सेसा उ। अणुपरिहारियभावं वयंति कप्पट्ठियत्तं च ॥ ६०७ ॥ एवं सो अट्ठारसमासपमाणो य वन्निओ कप्पो । संखेवओ विसेसो विसेससुत्ताउ नायव्व ॥ ६०८ ॥ कम्पसम्मत्ती तयं जिणकप्पं वा उविंति गच्छं वा । पडिवज्जमाणगा पुण जिणस्सगासे पवज्जंति ॥ ६०९ ॥ तित्थयरसमीवासेवगस्स पासे व नो व अन्नस्स । एएसिं जं चरणं परिहारविसुद्धिगं तं तु ॥ ६१० ॥ -गाथार्थ परिहारविशुद्धि तप- धीर पुरुषों ने ऋतु भेद - अर्थात् शीत-उष्ण व वर्षा के भेद से पारिहारिकों के लिये तप भी जघन्य - मध्यम और उत्कृष्ट तीन प्रकार का बताया है ॥ ६०२ ॥ ग्रीष्मऋतु में जघन्य तप चतुर्थ भक्त, मध्यम तप छट्ट भक्त एवं उत्कृष्ट तप अट्टम भक्त का है । शीतकाल में जघन्य तप छट्टु, मध्यम तप अट्टम एवं उत्कृष्ट तप दशम भक्त का होता है । वर्षाऋतु में जघन्य तप अट्टम, मध्यम तप दशम एवं उत्कृष्ट तप द्वादश भक्त का होता है । पारणा में सर्वत्र आयंबिल होता है। आहार -पानी की सात गवेषणाओं में से अभिग्रह पूर्वक पाँच से ही भिक्षा ग्रहण करे । अन्त में पाँच में से भी दो गवेषणाओं से ही अभिग्रह पूर्वक आहार- पानी ग्रहण करे । कल्पस्थित पाँच मुनि भिक्षा के अभिग्रह पूर्वक प्रतिदिन आयंबिल करे ।।६०३-६०५ ।। इस प्रकार छः मास तक विशिष्ट तप करने के पश्चात् तपस्वी वैयावच्च करते हैं और जो वैयावच्च करने वाले थे वे छः मास तक तप करते हैं। बारह मास के पश्चात् वाचनाचार्य छः मास का तप स्वीकार करता है और शेष आठ में से एक वाचनाचार्य बनता है और सात तपस्वी की वैयावच्च करते हैं । इस प्रकार अट्ठारह मास में यह तप पूर्ण होता है । यहाँ इसका संक्षेप में वर्णन किया गया है। विशेष जानने के इच्छुक बृहत्कल्प आदि विशेष सूत्रों से जाने ।।६०६-६०८ ।। कल्प की समाप्ति के पश्चात् आराधक जिनकल्प का स्वीकार करते हैं अथवा पुनः गच्छ में आते हैं। परिहारविशुद्धि कल्प तीर्थंकर परमात्मा के पास स्वीकार किया जाता है या जिन्होंने तीर्थंकर के सान्निध्य में इस कल्प की आराधना की हो, उनके पास स्वीकार किया जाता है। अन्य किसी के पास स्वीकार नहीं किया जा सकता । परिहारविशुद्धि तप करने वालों का चारित्र परिहारविशुद्धि चारित्र कहलाता है ।।६०९-६१० ॥ -विवेचन- परिहार = तप विशेष । पारिहारिका: = Jain Education International द्वार ६९ तप विशेष को करने वाले । For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001716
Book TitlePravachana Saroddhar Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHemprabhashreeji
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year1999
Total Pages504
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Principle
File Size8 MB
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