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________________ प्रवचन-सारोद्धार १४१ गुणव्रत के अतिचार६. दिक्परिमाण व्रत - विभिन्न दिशाओं में जाने-आने का परिमाण करना। इसके पाँच अतिचार हैं-i. तिर्यक् दिशि, ii. अधो दिशि, iii. ऊर्ध्व दिशि, iv. स्मृति विस्मरण, v. क्षेत्र वृद्धि । - प्रथम तीनों दिशाओं के नियत परिमाण का अतिक्रम, व्यतिक्रम व अनाभोग से उल्लंघन करने पर अतिचार लगता है। अन्यथा प्रवृत्ति करने से व्रतभंग हो जाता है। • तिर्यक्-पूर्वादि दिशा। • अध:-तलघर, कुंआ, भूगर्भस्थित ग्राम, नगर आदि । • ऊर्ध्व-पर्वत, वृक्ष, शिखर आदि । अतिक्रमादि का स्वरूप. . आधा कर्मादि आहार ग्रहण करने की अनुमति देना ‘अतिक्रम'। • वहोरने के लिए कदम उठाना 'व्यतिक्रम' । • ग्रहण करना ‘अतिचार' । • खाना 'अनाचार' । प्रभु के दर्शन व साधु के वन्दन निमित्त दिक् परिमाण का उल्लंघन करना पड़े तो व्रत भंग नहीं होता। पर गमनागमन साधु की तरह उपयोगपूर्वक होना चाहिये। (iv) स्मृति विस्मरण – व्रत लेकर भूल जाना कि मैंने कितने योजन तक जाने-आने का नियम लिया था। विस्मृति का कारण व्याकुलता, प्रमाद, क्षयोपशम की मंदता हो सकती है। पूर्व दिशा में सौ योजन जाने का प्रमाण किया परन्तु जाते समय स्पष्ट याद नहीं रहा कि मेरे सौ योजन जाने का परिमाण था या पचास योजन का? ऐसी स्थिति में पचास योजन से अधिक जाने में विस्मृति के कारण व्रतभंग हो जाता है। साथ ही सौ योजन का परिमाण होने से व्रत की अपेक्षा भी है अत: यहाँ अतिचार ही लगता है। ग्रहण किया हुआ व्रत सदा स्मरण में रखना चाहिये। कहा है-स्मृतिमूलं हि सर्वमनुष्ठानं । यह अतिचार सभी व्रतों में लागू होता है। (v) क्षेत्र वृद्धि - प्रत्येक दिशा में सौ-सौ योजन जाने का प्रमाण किया हुआ है पर परिस्थितिवश एक दिशा में अधिक जाने की सम्भावना बन गई ऐसे समय में एक दिशा में गमन-परिमाण घटाकर दूसरी Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001716
Book TitlePravachana Saroddhar Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHemprabhashreeji
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year1999
Total Pages504
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Principle
File Size8 MB
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