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________________ ज्ञानसार जब कि जो आत्मा अपने समस्त अभ्यंतर अवयवों को ज्ञान के दर्पण में निरख निज सुन्दरता को आत्मसात करता है, उसका कृत्रिम प्रदर्शन करने, बाह्य दिखावे के लिए उसे बाहरी दुनिया में कभी भटकना नहीं पडता । क्यों कि यह सौन्दर्य, बाह्यसापेक्ष जो नहीं है । इसके सुखों का अनुभव करने के लिए दुनिया के बाजार की खाक नहीं छ।ननी पड़ती । तब भला, वह बाह्य पदार्थों के प्रति मोहित क्यों होगी ? उसके दिल में उनके प्रति आसक्ति क्यों कर पैदा होगी ? ज्ञानाचार, दर्शनाचार, चारित्राचार, तपाचार एवं वीर्याचार, ये पांच प्राचार आत्मा के अभ्यंतर रमणीय अवयव हैं ! दर्पण में देखे बिना वह अपनी सुन्दरता और रमणीयता का वास्तविक दर्शन नहीं कर सकती। ज्ञान-आत्मस्वरूप यह दर्पण है : इसमें जब ज्ञानाचारादि पांच प्राचारों के अनुपम सौन्दर्य का दर्शन होता है तब जीवात्मा झम उठती है, परम आनन्द का अनुभव करती है । उस में आकंठ डूब जाती है, उन्मत्त हो गोते लगाने लगती है । वह एक प्रकार के अनिर्वचनीय सुखानुभूति में खो जाती है । परिणामस्वरूप उसे बाह्य पदार्थ, परद्रव्य नीरस निस्तेज और आकर्षणविहीन लगते हैं । और फिर जो पदार्थ नीरस स्वादहीन, फीका और अनाकर्षक लगे, उसके प्रति भला, क्या मोहभावना पैदा हो सकती है ? यह असंभव है ! परद्रव्य तब तक ही मन को मलिन, मोहित करने में समर्थ होता है जब तक शीशे के दर्पण में मनुष्य अपना सौन्दर्य और व्यक्तित्व को देखने का प्रयत्न करता है । वह जैसे जैसे प्रात्मस्वरूप के दर्पण में अपने व्यक्तित्व को (ज्ञान....दर्शन....चारित्र आदि) सुन्दरता को गौरसे देखने का प्रयत्न करता है, वैसे वैसे पर द्रव्यों के प्रति रही आसक्ति, प्रीति-भाव कम होने लगता है। कहने का तात्पर्य यह है कि ज्यों-ज्यों ज्ञानाचारादि पांच आचारों के पालन की गति बढती जाएगी त्यों-त्यों प्रात्म-स्वरूप की सुन्दरता में बढोतरी होने से पर-द्रव्य के सम्बंध में जीवात्मा की प्रासक्ति कम होने लगती है । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001715
Book TitleGyansara
Original Sutra AuthorYashovijay Upadhyay
AuthorBhadraguptasuri
PublisherVishvakalyan Prakashan Trust Mehsana
Publication Year
Total Pages636
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Principle
File Size11 MB
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