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________________ ४६ ज्ञानसार सुघडता सौन्दर्य के दर्शन कर प्रीति-भाव उत्पन्न होता है । वह एक प्रकार की जडता नहीं तो और क्या है ? क्यों कि वह जरा भी नहीं सोचता कि यह तो आत्मा के शरीर का बाह्य रंग रूप, गुण मात्र है । वास्तव में तो आत्मा स्फटिक-रत्न की तरह निर्मल, विमल और विशुद्ध है । न तो उसका स्वरूप काला अथवा गोरा है, ना ही उसकी प्राकृति सुन्दर अथवा बेडोल है । यह सब कर्मों का खेल है । आत्मा कर्म की छाया से ढकी हुई है। और ये सब उसके विभिन्न प्रतिबिंब हैं। मोहदृष्टि को चूर-चूर करनेवाला यह चिंतन, विशुद्ध आत्मस्वरूप का चितन- मनन, कितना तो अलौकिक और प्रभावशाली है? शकितसम्पन्न है ? इसकी प्रतीति तभी हो सकती है जब इसका सही रूप में प्रयोग किया जाए। कोरी बातें करने से काम नहीं बनेगा । पूर्णता पाने के लिए हमें तन-मन से प्रवृत्त होकर इसका अमल करना होगा । तभी पराये को अपना मानने की जडता दूर होगी और अंत:चक्षु के द्वार खुल जाएंगे। अनारोपसुखं मोहत्यागावनुभवन्नपि । मारोपप्रियलोकेषु वस्तुमाश्चर्यवान् भवेत् ॥७॥३१॥ अर्थ : योगी, मोह-त्याग से [क्षयोपशम से आरोपरहित स्वाभाविक-सुल अनुभव करते हुए भी रात-दिन असत्याचरण में खोये मिथ्यात्वी जीवों को, अपना अनुभव कहने में प्राश्चर्य करता है । विवेचनः वीतराग सर्वज्ञ भगवत द्वारा प्रतिपादित योगमार्ग पर निरंतर गतिशील योगी पूरूष, देवाधिदेव की अनन्य कृपा से जब मोहका क्षय-उपशम करनेवाला बनता है और उस पर छाये मोहादि-प्रावरण के प्रभाव को नहीवत् बना देता है, तब आत्मा के स्वाभाविक [कर्मोदय से अमिश्रित] सुखों का अनुभव करता है । ऐसे नैसर्गिक प्रात्मीय सुख के अनुभवी महात्मा के समक्ष जब सामान्यजनों की भीड उभर आए, जिस पर मोहनीय कर्म का अनन्य प्रभाव हो, तब उन्हें क्या उपदेश दिया जाए, यह एक यक्ष-प्रश्न होता है। ना तो वे अपने स्वाभाविक सुख के अनुभव की बात कह सकते हैं. नहीं जिस को वह सुख मान रहे हैं, उसे 'सुख' की संज्ञा दे सकते हैं । तब बे असमंजस में पड़ जाते हैं । अजीब कशमकश में फंस जाते हैं कि, "इस प्रजा को क्या कहा जाए ?' Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001715
Book TitleGyansara
Original Sutra AuthorYashovijay Upadhyay
AuthorBhadraguptasuri
PublisherVishvakalyan Prakashan Trust Mehsana
Publication Year
Total Pages636
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Principle
File Size11 MB
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