SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 620
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ८४ ] [ ज्ञानसार भावनिक्षेपः तीर्थंकर भगवन्त को लेकर जहाँ भाव-निक्षेप का विचार किया गया है, वहां कहा है-'समवसरणठ्ठा भाव जिणिदा' समवसरण में बैठे हुए........धर्मदेशना देते हुए तीर्थंकर भगवन्त भाव तीर्थकर हैं। ___ 'श्री अनुयोग द्वार सूत्र' में कहा है : 'वक्तृविवक्षित परिणामस्य भवनं भावः ।' वक्ता के कहे हुए परिणाम जाग्रत होने को भाव कहते हैं । भाव से प्रतिक्रमण आदि क्रियायें दो प्रकार से होती हैं : (१) आगम से (२) नो आगम से ।। . प्रतिक्रमण के सूत्रों के अर्थ के उपयोग को भाव प्रतिक्रमण कहते हैं । इसी तरह जो क्रिया की जाती है उस क्रिया के अर्थ के उपयोग हो तो वह क्रिया भाव क्रिया कही जाती है । - नो आगम से भाव क्रिया तीन प्रकार की है : (१) लौकिक (२) कुप्रावनिक (३) लोकोत्तर (१) लौकिक : लौकिक शास्त्रों के श्रवण में उपयोग । (२) कुप्रावचनिक : होम, जप........योगादि क्रियाओं में उपयोग । (३) लोकोत्तरिक : तच्चित्त आदि आठ विशेषताओं से युक्त धर्मक्रिया (प्रतिक्रमण आदि) सारांश यह है कि प्रस्तुत क्रिया छोड़कर दूसरी तरफ मन-वचनकाया का उपयोग न करते हुए जो क्रिया की जाती है उसे भाव क्रिया कहते हैं । २८. चार अनुयोग 1राग, द्वेष और मोह से अभिभूत संसारी जीव शारीरिक और मानसिक अनेक दुःखों से पीड़ित हैं। इन समस्त दुःखों को दूर करने के लिए हेय और उपादेय पदार्थ के परिज्ञान में यत्न करना चाहिए । यह प्रयत्न विशिष्ट विवेक के बिना नहीं हो सकता है । विशिष्ट विवेक अनन्त अतिशय युक्त आप्त पुरुष के उपदेश के बिना नहीं हो सकता है । राग, द्वेष और मोह आदि दोषों का सर्वथा क्षय करने वाले को 'आप्त' कहते हैं । ऐसे आप्त पुरुष 'अरिहंत' ही हैं । 1. आचारांग सूत्र टीका ; श्री शीलांकाचार्यजी । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001715
Book TitleGyansara
Original Sutra AuthorYashovijay Upadhyay
AuthorBhadraguptasuri
PublisherVishvakalyan Prakashan Trust Mehsana
Publication Year
Total Pages636
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Principle
File Size11 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy