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________________ ३२ ज्ञानसार इस तरह एक अोर धर्मक्रियाओं को अंजाम देने के साथ-साथ इस बात की भी पूरी सावधानी बरतनी होगी कि 'मेरी बाह्य पौद्गलिक सुखों की स्पृहा में क्या प्राणातीत कमी हुई है ?' साथ ही पूरा ध्यान रखा जाए कि इस कालावधि में बाह्य सुखों का खयाल तक मन में उठने न पाए । वर्ना 'नमाज पढ़ते, रोजे गले पडे !' वाली कहावत चरितार्थ होते देर नहीं लगेगी । एक तरफ मल नष्ट करने की औषधि का सेवन और उसमें वृद्धि करने बालो पौषधि का सेवन ! फिर तो जो होना होगा, सो होकर ही रहेगा । लेकिन इससे बड़ी मूर्खता और कौन सी हो सकती है ? अपने मन को स्थिर किये बिना अथवा करने की इच्छा नहीं रखने के उपरान्त सिर्फ धर्मक्रिया करते रहने से अगर अात्मसुख का लाभ न मिले तो इसमें क्रिया का दोष मत निकालो। यदि दोष निकालना है तो अपनी वैषयिक सुखों की अनन्त लालसाओं का, स्पृहा का और अपनी मानसिक अस्थिरता का निकालें । स्थिरता वाङमन:कार्ययंषामनागितां गता । योगिनः समशीलास्ते ग्रामेऽरण्ये दिवा निशि ॥५:२१।। जिस महापुरूष को स्थिरता, वाणी, मन एवं काया से एकात्मभाव को प्राप्त हुई है, ऐसे महायोगी ग्राम, नगर और अरण्य में, रात-दिन सम स्वभाव वाले होते हैं । विवेचन : जो व्यक्ति मनोहर नगर में निवास करते हों अथवा घने जंगल में, साथ ही जिन्हें नगर के प्रति प्रासक्ति-लगन नहीं और अरण्य के प्रति उद्वेग/अरुचि नहीं, उन्हें आंखों को चकाचौंध करनेवाला दिन का प्रकाश हो अथवा अमावस की गहरी अंधियारी रात हो, वे सदासर्वदा ऐसी दशा में निलिप्त भाव से युक्त होते हैं । दिन का उजाला उन्हें हर्षविह्वल करने में असमर्थ होता है और रात का अन्धकार शोकातुर बनाने में ! कारण उनके वारणी-व्यवहार और तन-मन में स्थिरता समरस जो हो गयी है। उनके मन में अात्मस्वरूप की.... पूर्णानन्द की... ज्ञानामृत की रमणता, वाणी में पूर्णानन्द की सरिता और काया में पूर्णानन्द की प्रभा प्रगट होती है । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001715
Book TitleGyansara
Original Sutra AuthorYashovijay Upadhyay
AuthorBhadraguptasuri
PublisherVishvakalyan Prakashan Trust Mehsana
Publication Year
Total Pages636
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Principle
File Size11 MB
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