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________________ [ १५ ध्यान ] दुर्दशा है, नुकसान है । उसका चिंतन करके वैसा ही दृढ़ निर्णय हृदय में स्थापित करना । । ३ विपाकविचय अशुभ और शुभ कर्मों के विपाक (परिणाम) का चिंतन करके 'पापकर्म से दुःख तथा पुण्यकर्म से सुख' ऐसा निर्णय हृदयस्थ करना । ४. संस्थानविचय षद्रव्य, ऊर्ध्व-अधो-मध्यलोक के क्षेत्र, चौदह राजलोक की आकृति वगैरह का चिंतन करके, विश्व की व्यवस्था का निर्णय करना, उसे संस्थान विचय कहते हैं। धर्मध्यानी श्री आवश्यक सूत्र में धर्मध्यान करने की इच्छुक आत्मा की योग्यता का प्रतिपादन इस प्रकार किया है : 'जिणसाहूगुणकित्तणपसंसणाविणयदाणसंपण्णो । सुअसीलसंजमरओ धम्मज्झाणी मुणयन्वो' । (१) श्री जिनेश्वरदेव के गुणों का कीर्तन और प्रशंसा करने वाला। (२) श्री निर्ग्रन्थ मुनिजनों के गुणों का कीर्तन-प्रशंसा करने वाला। उनका विनय करने वाला । उनको वस्त्र-आहारादि का दान देने वाला। (३) श्रुतज्ञान की प्राप्ति करने में निरत । प्राप्त श्रतज्ञान से आत्मा को भावित करने के लक्षवाला। (४) शील-सदाचार के पालन में तत्पर । (५) इन्द्रियसंयम, मनःसंयम करने में लीन । ऐसी आत्मा धर्मध्यानी बन सकती है। श्री प्रशमरति ग्रंथ में बताया गया है कि वास्तविक धर्मध्यान प्राप्त हए बाद ही आत्मा वैरागी बनती है अर्थात् उस आत्मा में वैराग्य की ज्योत प्रज्वलित होती है । 'धर्मध्यानमुपगतो वैराग्यमाप्नुयाद् योग्यम् । ३ अशुभशुभकर्मविपाकानु चिन्तनार्थो विपाकविचयःस्यात् ।। ४ द्रव्यक्षेत्राकृत्यनुगमनं संस्थानविचयस्तु । २४८-२४९ प्रशमरति प्रकरणे । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001715
Book TitleGyansara
Original Sutra AuthorYashovijay Upadhyay
AuthorBhadraguptasuri
PublisherVishvakalyan Prakashan Trust Mehsana
Publication Year
Total Pages636
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Principle
File Size11 MB
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