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________________ सर्वनयाश्रय ४८५ विवेचन : विशेषरहित यानी निरपेक्ष । विशेषसहित यानी सापेक्ष । किसी भी शास्त्रवचन की वास्तविकता- प्रामाणिकता का निर्णय करने की यह सच्ची पद्धति है । तनिक सोचिये और समझने का प्रयत्न कीजिये । 'यह वचन अपेक्षायुक्त है, अन्य नयों के सापेक्ष कहा गया है, तब सच्चा ! और यदि अन्य नयों से निरपेक्ष कहा गया है, तो झूठ और अप्रामाणिक है ।' 'उपदेशमाला' में कहा गया है अपरिच्छियसुयनिहसस्स, केवलमभिन्नसुत्तचारिस्स । सव्वुज्जमेण वि कयं अन्नाणतवे बहुं पडई । "श्रत-सिद्धान्त के रहस्य को समझे बिना ही केवल सूत्र के अक्षरों का अनुसरण कर जो अपनी प्रवृत्ति रखता है, उस का तीव्र प्रयत्नों से किया गया बहुत भी क्रियानुष्ठान, अज्ञान तप माना गया है।" जो शास्त्रवचन अपने सामने आता है, वह वचन किस आशय एवं अपेक्षा से कहा गया है-यह अवगत करना निहायत जरूरी है । क्योंकि अपेक्षा और आशय को समझे बिना निरपेक्ष वृत्ति से उसका अनुसरण करना नितान्त अप्रमाण है, मिथ्या है । सर्व नयों का ज्ञान तभी कहा जाता है, जब वचन की अपेक्षा का ज्ञान हो, तभी साधक आत्मा को अपूर्व समता का अनुभव होता है । ज्ञानप्रकाश सोलह कलाओं से खिल उठता है । लोके सर्वनयज्ञानां, ताटस्थ्थं वाऽप्यनुग्रहः । स्यात् पृथग्नयमूढानां, स्मयातिर्वाऽतिविग्रहः ॥४॥२५२।। अर्थ : लोक में सर्व नयों के ज्ञाता को मध्यस्थता अथवा उपकारबुद्धि होती है, जबकि विभिन्न नयों में मोहग्रस्त बने व्यक्ति को अभिमान की पीड़ा अथवा अत्यन्त क्लेश होता है । विवेचन : मध्यस्थष्टि ! उपकारबुद्धि ! सभी नयों के ज्ञान के ये दो फल हैं । जैसे-जैसे नयों की अपेक्षा का ज्ञान होता जाता है, वैसे-वैसे उसकी एकान्त दृष्टि मन्द होती चली जाती है । परिणामतः मध्यस्थ दृष्टि की किरणें ज्योतिर्मय हो उठती Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001715
Book TitleGyansara
Original Sutra AuthorYashovijay Upadhyay
AuthorBhadraguptasuri
PublisherVishvakalyan Prakashan Trust Mehsana
Publication Year
Total Pages636
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Principle
File Size11 MB
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