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________________ तप ४७९ पैदा नहीं होनी चाहिए ! ऐसी तपश्चर्या भूल कर भी नहीं करनी चाहिए कि जिस से योगों की आराधना में किसी प्रकार की बाधा पहँचे । प्रातःकालीन प्रतिक्रमण के समय साधू को जब तप-चितन का कार्योत्सर्ग करना होता है, तब भी निरंतर यह चिंतन-मनन करना चाहिए कि, 'आज के मेरे विशिष्ट कर्तव्यों में कहीं यह तप बाधक तो सिद्ध नहीं होगा ?' 'आज मेरा उपवास है....अट्ठम है, अतः मुझ से स्वाध्याय नहीं होगा, मैं ग्लानसेवा....गुरुसेवा आदि नहीं कर पाऊंगा!' ऐसा तप किसी काम का नहीं । इन्द्रियों की शक्ति का हनन नहीं होना चाहिए । जिन इन्द्रियों के माध्यम से संयम की आराधना करनी है, उनका हनन हो जाने पर संयम की आराधना खंडित हो जाएगी । आंख की ज्योति चली जाए तो ? कान से सुनना बंद हो जाए तो ? शरीर को लकवा मार जाए तो ? क्या होगा ? साधु-जीवन तो स्वाश्रयी जीवन है। खद के काम खुद ही करने होते हैं ! पादविहार करना, ठीक वैसे ही गोचरी से जीवन-निर्वाह करना होता है ! यदि इन्द्रियों को क्षति पहुँचेगी तो निःसंदेह साधु के आचारों को भी क्षति पहुँचे बिना नहीं रहेगी । __ कर्तव्यपालन और इन्द्रिय-सुरक्षा का लक्ष्य तपस्वी को चूकना नहीं चाहिए। दुान से मनको बचाना चाहिए। ऐसी सावधानी विशेष रूप से बाह्य तप की आराधना [अनशन, उणोदरी, वत्तिसंक्षेप, रसपरित्याग, काया-क्लेश और संलीनता] करने वाले को रखनी चाहिए । साथ ही, सावधानी के नाम पर कहीं प्रमाद का पोषण न हो जाए, इसके लिए सावधानी बरतना जरूरी है । मुलोत्तरगुणश्रेणि - प्राज्यसाम्राज्यसिद्धये ।। बाह्यमाभ्यन्तरं चेत्थं तपः कुर्यान्महामुनिः ॥८॥२४८॥ अर्थ : मूलगुण एवं उत्तरगुण की श्रेणिस्वरूप विशाल साम्राज्य की सिद्धि के लिए श्रेष्ठ मुनि बाह्य और अंतरंग तप करते हैं । विवेचन : मुनीश्वर भी साम्राज्य के चाहक होते हैं। राजेश्वर के साम्राज्य से विलक्षण, विशाल एवं व्यापक साम्राज्य ! यह साम्राज्य है. मूलगुण एवं उत्तरगुणों का ! Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001715
Book TitleGyansara
Original Sutra AuthorYashovijay Upadhyay
AuthorBhadraguptasuri
PublisherVishvakalyan Prakashan Trust Mehsana
Publication Year
Total Pages636
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Principle
File Size11 MB
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