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________________ वैसे कर्मक्षय करनेवाला तप आभ्यन्तर ही होता है । 'प्रशमरति' में भगवान उमास्वातिजी ने कहा है : "प्रायश्चितध्याने वयावत्यविनयावथोत्सर्ग: । स्वाध्याय इति तपः षट्प्रकारमभ्यंतरं भवति ॥" प्रायश्चित, ध्यान, वैयावच्च, विनय, कायोत्सर्ग और स्वाध्यायमाभ्यन्तर तप के छह मुख्य भेद हैं । इन में भी स्वाध्याय' को श्रेष्ठ तप कहा गया है । 'सज्झायसमो तवो नत्थि ।' स्वाध्याय के समान अन्य कोई तप नहीं है । यह श्रेष्ठता कर्मक्षय की अपेक्षा से है । स्वाध्याय से विपुल प्रमाण में कर्मक्षय होता है, जो पन्य तयों से नहीं होता । 'तब क्या बाह्य तप महत्त्वपूण नहीं है ?' है, आभ्यन्तर-तप की प्रगति में सहायक हो-ऐसे बाह्य-तप की नितान्त आवश्यकता है । उपवास करने से यदि स्वाध्याय में प्रगति होती हो तो उपवास करना ही चाहिए । कम खाने से यदि स्वाध्यायादि क्रियाओं में स्फूर्ति का संचार होता हो तो अवश्य कम खाना चाहिए । भोजन में कम व्यंजनो-वस्तुओं के उपयोग से, स्वाद का त्याग करने से, काया को कष्ट देने से, और एक स्थान पर स्थिर बेठने से यदि आभ्यन्तर तप में वेग पाता हो और सहायता मिलती हो तो निःसंदेह ऐसा बाह्य-तप जरूर करना चाहिए । तात्पर्य यह है कि बाह्यतप, आभ्यन्तर तप का पूरक बनना चाहिये। हे मानव, केवल तुम ही आभ्यन्तर तप की आराधना कर कर्मक्षय करने में सर्वदृष्टि से समर्थ हो । अत: कर्मक्षय कर आत्मा का स्वरूप प्रगट करने हेतु तप करने तत्पर बन जायो । जब तक कर्मक्षय कर आत्म-स्वरुप प्रगट नहीं करोगे, तब तक तुम्हारे दु:खों का अंत नहीं मायेगा। आनुश्रोतसिको वृतिर्बालानां सुखशीलता ! प्रातिश्रोतसिको वृति निनां परमं तपः ॥२॥२४२॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001715
Book TitleGyansara
Original Sutra AuthorYashovijay Upadhyay
AuthorBhadraguptasuri
PublisherVishvakalyan Prakashan Trust Mehsana
Publication Year
Total Pages636
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Principle
File Size11 MB
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