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________________ ध्यान ४५४ जानते हैं न विश्वामित्र ऋषि का चित्त अपने ध्येय से च्युत हो कर रुपयौवना मेनका पर स्थिर हो गया; होते ही क्या स्थिति हुई ? उन की सुख-शांति और परम ध्येय ही नष्ट हो गया ! नंदिषण मुनि और आषाढाभूति मुनि के उदाहरण कहां आपसे छिपे हुए हैं ? अतः आप सिर्फ एक ही काम कीजिए-भौतिक सुखों की स्पृहा को बहार खदेड़ दीजिए। और भूलकर भी वैषयिक सुखों का कभी विचार न करिए। वैषयिक सुखों की संहारकता का और असारता का भी चितन न करिए। अब आप अपने निर्धारित 'ध्येय' में स्थिर होने का प्रयत्न कीजिए । जिस गति से आपकी ध्येय-तल्लीनता बढती जाएगी, ठीक उसी अनुपात में आप के सुख में वृद्धि होती जाएगी! और तब आप अनुभव करेंगे कि, 'मैं सुखो हूँ, मेरे सुख में निरंतर वृद्धि होती जा रही है। आपने जब मुनि-पद प्राप्त कर लिया है तब यह शिकायत नहीं होनी चाहिए कि, 'संकल्पित ध्येय में मन स्थिर नहीं रहता ।' जिस ध्येयपूर्ति के लिए आपने भरा-पूरा संसार छोड दिया, ऋद्धि-सिद्धियों का परित्याग कर प्रव्रज्या ग्रहण की, उस ध्येय में आपका मन स्थिर न हो यह सरासर असंभव बात है। जिस ध्येय का अनुसरण करने हेतु प्रापने असंख्य वैषयिक सुखों का त्याग कर दिया, उस ध्येय के ध्यान में आप को आनन्द न मिले. यह असंभव बात है। हाँ, संभव है कि आप अपने ध्येय को हैं। विस्मरण कर गये हो और ध्येयहीन जोवन व्यतीत करते हो तो आ का मन ध्येय-ध्यान में स्थिर होना असंभव है। साथ ही, ऐसी स्थिति में आप सुखी भी नहीं रह सकते । श्राप को अपना मन ही खाता रहता है। फिर भले ही इसके लिए आप 'पापोदय' का बहाना करें अथवा अपनी भवितव्यता को दोष दें। ध्याता, ध्येर और ध्यान को एकता का समय ही परमानन्द-प्राप्ति की मंगल-बेला है, परम ब्रह्म-मस्ती का सुहाना समय है और है मुनिजोवन जीने का अपूर्व प्रहलाद । ध्याताऽन्तरात्मा ध्येयस्तु परमात्मा प्रकीर्तितः । ध्यानं चैकाग्रयसंवित्तिः समापत्तिस्तदेकता ॥२॥२३४॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001715
Book TitleGyansara
Original Sutra AuthorYashovijay Upadhyay
AuthorBhadraguptasuri
PublisherVishvakalyan Prakashan Trust Mehsana
Publication Year
Total Pages636
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Principle
File Size11 MB
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