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________________ ४४६ ज्ञानसार परिशीलन अत्यावश्यक है । शास्त्र-ग्रंथों में उल्लेखित क्रमिक आत्मविकास के साथ कदम मिलाकर चलना जरूरी है। ___ ओह ! आतमदेव के भावपूजन की कैसी अनोखी दुनिया है ! स्थूल दुनिया से एकदम निराली। वहाँ न तो संसार के स्वार्थजन्य प्रलाप हैं और ना हो कषायजन्य कोलाहल । न राग-द्वेष के दवानल हैं, ना ही अज्ञान और मोह के आंधी-तुफान । न वहाँ स्थूल व्यवहार की गुत्थियाँ हैं और ना ही चंचलता-अस्थिरता के संकल्प-विकल्प । मोक्षगति की चाहना रखने वाला अोर साधना-पथ पर गतिशील जीव जब प्रस्तुत भावपूजा में प्रवृत्त होता है, तब उसे अपनी चाह पूर्ण होती प्रतीत होती है। वह अनायास हथेली में मोक्ष के दर्शन करता है । सारा दारमदार भावपूजा पर निर्भर है। तल्लीनता-तन्मयता के लिये लक्ष्य को शुद्धि आवश्यक है। यदि प्रात्मा की परम विशुद्ध अवस्था के लक्ष्य को लेकर भावपूजा में प्रवृत्ति हो, तो तन्मयता का प्राविर्भाव हुए बिना नहीं रहता। अत: साधक प्रात्मा का यही एकमेव लक्ष्य हो, और प्रवृत्ति भी। तभो साधना के स्वर्गीय ग्रानन्द का अनुभव संभव है, साथ ही प्रगतिपथ पर अग्रसर हो सकते हैं । द्रव्यपूजोचिता भेदोपासना गृहसेधिनाम् | भावपूजा तु साधूनां भेदोपासनामिका ! १८ १२:२।। अर्थ :- गृहस्थों के लिये भेदपूर्वक उपासा रप द्रव्य पूजा योगा मानी गयी है । अभेद उपासना स्वरुप भावपूजा साधु के लिये योग्य है । [अलबत्त, गृहस्थों के लिए 'भावनोनीत मानस' नानक भावपूजा होती है ] विवेचन :- पूजा के दो प्रकार हैं- द्रव्यपूजा और भावपूजा । जिसके मन में जैसा पाए, वैसे पूजा नहीं करनी है, अपितु योग्यतानुसार पूजा करती है । आत्मा के विकास के आधार पर पूजन-अर्चन करना है। क्योंकि योग्यता न होने पर भी अगर पूजा की जाए, तो वह हानिकारक है । __ घर में रहे हुए और पापस्थानकों का सेवन करने वाले गृहस्थों Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001715
Book TitleGyansara
Original Sutra AuthorYashovijay Upadhyay
AuthorBhadraguptasuri
PublisherVishvakalyan Prakashan Trust Mehsana
Publication Year
Total Pages636
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Principle
File Size11 MB
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