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________________ ३५८ ज्ञानसार जिनेश्वर भगवान के समरन का उत्कट उपाय शास्त्राध्ययन और शास्त्र-स्वाध्याय है ! शास्त्र-स्वाध्याय के माध्यम से जिनेश्वर भगवंत का जो स्मरण होता है, उनकी जो स्मति जागत होती है, एक प्रकार से वह अपूर्व और अद्भुत ही नहीं, उस में गजब की रसानुभूति होती है । "पागमं आयरंतेण अत्तणो हियवाखियो ।" तित्थनाहो सयंधुद्धो सवे ते बहुमन्निया ।। "तुम ने आगम का यथोचित आदर-सत्कार किया मतलब अात्महित साधने के इच्छुक एवं स्वयंबुद्ध तीर्थ करादि सभी का सन्मान-बहुमान किया है।" वैसे पागम का यथोचित मानसन्मान करने का सर्वत्र कहा गया है। परतु शास्त्र को सर्वोपरी मानना / समझना तभी संभव है जब आत्मा हित साधने के लिए तत्पर हो । जब तक वह इन्द्रियों के विषयसुखों के प्रति आसक्त हो, कषायों के वशीभूत हो और संज्ञाओं से बुरी तरह प्रभावित हो. तब तक शास्त्र के प्रति अभिरूचि नहीं होती, ना ही शास्त्रों का यथोचित आदरसत्कार संभव है। आज के वैज्ञानिक युग और भौतिकवाद के झंझावात में शास्त्राध्ययन की प्रवृत्ति एक तरह से ठप्प सी हो गई है। शास्त्र के अतिरिक्त ढेर सारा साहित्य उपलब्ध है कि जीव में शास्त्राध्ययन और वांचन की रुचि ही नहीं रहती । आबाल-वृद्ध सभी के समक्ष देश-परदेश की कथा, राजकथा, रहस्य कथा, तंत्र-मंत्रकथा, भोजनकथा, नारीकथा, कामकथा, इत्यादि से संबधित ढेर सारी पठनीय सामग्री प्रकाशित होती जाती है कि शास्त्रकथाएँ उन्हें नीरस और दकियानूसी खयालात की लगती हैं । शास्त्रकथाएँ सर्वदृष्टि से निरूपयोगी और बकवास मालूम होती हैं। लेकिन जो साधु है, श्रमण है, और मुनि है, उसे तो शास्त्राध्ययन द्वारा परमात्मा जिनेश्वरदेव की अचिंत्य कृपादृष्टि का पात्र बनना ही चाहिए । प्रदृष्टार्थेऽनुधावन्त: शास्त्रदीपं विना जडाः । प्राप्नुवन्ति परं खेदं प्रस्खलन्तः पदे-पदे ॥५॥१८६॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001715
Book TitleGyansara
Original Sutra AuthorYashovijay Upadhyay
AuthorBhadraguptasuri
PublisherVishvakalyan Prakashan Trust Mehsana
Publication Year
Total Pages636
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Principle
File Size11 MB
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