SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 361
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ लोकसंज्ञा-त्याग ३३७ अर्थ : यदि लोकावलम्बन के आधार से बहुसंरव्य मनुष्यों द्वारा की जाती क्रिया करने योग्य हो तो फिर मिथ्याष्टि का धर्म कदापि त्याग करने योग्य नहीं है। विवेचन:- जिन को दृष्टि स्वच्छ न हो, -जिन की दृष्टि निराग्रही न हो, -जिनके पास केवल ज्ञान' का प्रकाश न हो, ---जिनके राग-द्वेषादि बंधन अभी टूटे न हो, ऐसे व्यक्ति-विशेष ने ही अपनी बुद्धिमत्ता के बलपर जो मिले उन्हें साथ लेकर विभिन्न मतों और पंथों की स्थापना की है। उन्हें 'मिथ्यामत' अथवा 'मिथ्यापंथ' कहा गया है। मिथ्यादृष्टि से वास्तविक विश्व-दर्शन नहीं होता। सब कुछ गलत-सलत दिखायी देता है। जो उसे दिखता है, वह सच मानता है। विश्व में ऐसे कई मत और संप्रदाय हैं और उनके अनुयायियों की संख्या भी कम नहीं है। मतलब विभिन्न मतों के विविध अनुयायी दुनिया में अत्र-तत्र फैले हुए हैं। यदि किसी की यह मान्यता हो कि 'बहुत लोग जिस मत का अनुसरण करते हैं, वह सच्चा हैं।' तो गलत बात है । क्यों कि सच्चाइ का अनुसरण करने वाले लोगों का प्रमाण प्रायः अल्प होता है । जबकि असत्य ओर अवास्तविकता का अनुसरण करने वाले असंख्य मिल जाएँगे । सत्य और वास्तविक मार्ग का अनुगमन करने की शक्ति बहुत कम लोगों में पायी जाती है । अत: अगर यह मान लिया जाए कि 'बहुमत जो करता है, उसे हमें भी करना चाहिए।' तो वह सत्य होगा या असत्य ? विश्व के ज्यादातर जोवों को क्या पसंद है, बृहत् समाज की अभिरुचि और अभिलाषा क्या है ?' इस बात को परिलक्षित कर जो लोग धर्म के सिद्धान्त और मत प्रवर्तन करते हैं, ऐसे लोग सत्य से दूर भागते हैं। वे सच्चे हो ही नहीं सकते। आमतौर से सामान्य जीवों को भोगपभोग में रुचि होती है। उन्हें हिंसा, झठ चोरी. दुराचार व्यभिचार और परिग्रह में दिलचस्पी होती है । वे गोत-सांगीत सुनना, सुदर रूप देखना, प्रिय रस का सेवन करना, गंध-सुगंध का आस्वाद लेना और मुलायम शरीर-स्पर्श करना २२ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001715
Book TitleGyansara
Original Sutra AuthorYashovijay Upadhyay
AuthorBhadraguptasuri
PublisherVishvakalyan Prakashan Trust Mehsana
Publication Year
Total Pages636
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Principle
File Size11 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy