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________________ भवोद्वग ३२१ विवेचन :- किसी एक नगर का एक नागरिक ! उसकी यह दृढ़ मान्यता थी कि लाख प्रयत्नों के बावजूद भी मन नियंत्रित नहीं होता । अतः वह प्रायः मन की अस्थिर वृत्ति और चंचलता का सर्वश्र डंका पीटता रहता था । श्रपनी मान्यता से विपरीत मन्तव्य रखने वाले के साथ वाद-विवाद करता रहता । वह मुनियो के साथ भी चर्चा करता रहता । न किसी की सुनता, ना ही समझने की कोशिश करता । मन की स्थिरता को मानने के लिये कतई तैयार नहीं । वायु वेग से नगर में बात फैल गयी । राजा ने भी सुनी, लेकिन राजा विचलित न हुआ । वह स्वयं दर्शन - शास्त्र का ज्ञाता और विद्वान् था । मन को नियत्रित करने की विद्या से वह भलो-भाँति परिचित था । उस ने मन ही मन उसे सबक सिखाने का निश्चय किया । पानी को तरह समय बातता गया । एक बार भाई साहब राजा के जाल में फँस गये । राजा ने उसे फाँसी की सजा सुना दी । सुनते हो उसका एड़ी का पसीना चोटी तक आ गया । वह आकुल-व्याकुल हो उठा । 'मृत्यु' के नाम से हो वह काँप उठा । वह राजा के आगे गिडगिडाने लगा । " प्रभु ! मुझे फाँसो न दो" वह बोला । " लेकिन अपराधी को दण्ड देना राजा का कर्तव्य है । "प्रभो ! जो दंड देता है, वह क्षमा भी कर सकता है ।" राजा ने कुछ सोचते हुए कहा : "एक शर्त पर तुम्हें क्षमा कर सकता हूँ ।" “एक नहीं, मुझे सौ शर्तें मंजूर हैं. लेकिन फाँसी मंजूर नहीं ।" उसने बेताब होकर कहा । "तैल से लबालब भरा पात्र हाथ में लिये नगर की हाट - हवेली और वजारों की प्रदक्षिणा करते हुए राजमहल में सकुशल पहुँचना होगा । यदि मार्ग में कहीं तेल की एक बूंद भी गिर गयी अथवा तेल-पात्र तनिक भी छलक गया तो मृत्यु दण्ड से तुम्हें कोई बचा नहीं पाएगा । बोलो स्वीकार है ?" उसने स्वीकार किया । राज-परिषद् समाप्त होने पर वह अपने आवास गया । उसके साथ राज कर्मचारी भी थे । इधर राजा ने हाट ܐܪ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001715
Book TitleGyansara
Original Sutra AuthorYashovijay Upadhyay
AuthorBhadraguptasuri
PublisherVishvakalyan Prakashan Trust Mehsana
Publication Year
Total Pages636
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Principle
File Size11 MB
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