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________________ ज्ञानसार प्रकार का संताप ! न वहाँ अनीति-अन्याय के लिये कोई स्थान है, ना ही दुराचार, चोरी अथवा राग-द्वेष का स्थान । पूर्णानन्दी आत्मा के अथाह समुद्र में अनन्य, अमूल्य, ज्ञानादि गुरगरत्नों के भंडार, अक्षय कोष भरे पड़े हैं । उसीमें वह स्वयं की पूर्णता समझता है । गुरण-गरिमा उसके अंग-अंग से प्रस्फुटित होती है, दृष्टिगोचर होती है । जागति ज्ञानदृष्टिश्चेत, तृष्णा - कृष्णाहिजाङ गुली। पर्णानन्दस्य तत कि स्याद, दैन्यश्चिकवेदना? ॥४॥ अर्थ : यदि तृष्णा रूप कृष्णसर्प के विष को नष्ट करने वाली गारुडी मंत्र के समान ज्ञानदृष्टि खुलती है, तब दीनतारूप बिच्छु की पीड़ा कैसे हो सकती है ? विवेचन : तुम्हारे पास अपार संपत्ति, बहुमूल्य आभूषण, कीमती वस्त्र, अनुपम रूप-सौन्दर्य, सर्वोच्च सत्ता और ऋद्धि-सिद्धि के भंडार नहीं, अतः तुम विलाप करते हो, दर-दर भटकते हो । हर दरवाजे पर अपना रोना रोकर प्रदर्शन करते हो । दीन-हीन बनकर चीत्कार करते हो । सौन्दर्यमयी पत्नी जीवन सहचरी न होने के कारण व्यग्न बनकर गली-गली फिरते हो। यह दीनता, व्यथा, चीत्कार, रुदन, लाचारी और निराशा भला क्यों ? आखिर इससे क्या मिलने वाला है ? दीन न बनो, निराशा को झटक दो और लाचार-वृत्ति छोड़ दो । इच्छित पाने के लिये, इच्छित पदार्थ व वस्तुओं को हस्तगत करने के लिये स्पृहा अभिलाषा)-तृष्णा रखते हुए, उसकी प्राप्ति के लिये लोगों के सामने हाथ फैलाते हो... भीख माँगते हो.....खुशामदें करते हो, यह सब छोड दो । उस पदार्थ की ओर तो तनिक देखो । अपनी दृष्टि तो डालो ! क्या तुम समझते हो कि उनकी प्राप्ति से तुम्हें शान्ति मिलेगी ? संतोष होगा ? तुम्हारा समाधान होगा? बल्कि इससे जोवन में अशान्ति, अप्रसन्नता, परेशानी का ही प्रादुर्भाव होने वाला है । ठीक उसी तरह प्राप्त वस्तुएँ, जैसे तुम चाहते हो, वैसे तुम्हारे पास स्थायी रूप से रहने वाली नहीं हैं, इसमें तुम्हें वास्तविक पूर्णता के दर्शन नहीं होंगे, आशातीत पूर्णता नहीं मिलेगी। __इसके बजाय अपने अन्तर्मन के पट खोलो, ज्ञान-चक्ष खोलो, और सोचो : "जगत की बाह्य जड़ वस्तुओं से मेरा कोई प्रयोजन नहीं है । जो भी मिलेगा, मुझे अपने कर्म से मिलेगा, उससे मुझे पूर्णत्व की प्राप्ति Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001715
Book TitleGyansara
Original Sutra AuthorYashovijay Upadhyay
AuthorBhadraguptasuri
PublisherVishvakalyan Prakashan Trust Mehsana
Publication Year
Total Pages636
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Principle
File Size11 MB
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