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________________ २८२ ज्ञानसार नहीं पाएगी । प्रतिदिन नया, नूतन लगनेवाला यह नंदनवन आपका अपना है...! अच्छा लगा न ? आपको क्या शत्रों का भय है ? हमेशा निर्भय रहिए । प्रति दुर्गम पर्वतमालाओं को क्षणार्ध में चकनाचूर कर दे, क्षत-विक्षत कर दे ऐसा शक्तिशाली वन प्राप के पास है। फिर भला, डर किस बात का ? इन्द्र इस वज्र को प्रायः अपने पास रखता है, वैसे माप को भी हे मुनिन्द्र ! धैर्य रुपी पत्र को सदा-सर्वदा अपने पास रखना है। यदि परिषहों की पर्वतमाला प्रापका मार्ग अवरुद्ध कर दे तो धैर्ग-वज्र से उन्हें चकनाचूर कर निरंतर आगे बढते रहना है । क्षुधा या पीपासा, शोत या उष्ण, डाँस या मच्छर, नारी या सम्मान...आदि किसी भी परिषह से आपको दीनता या उन्माद नहीं करना है । धैर्य-वज्र से उसे पराजित कर सदा विजयश्री वरण करते रहना है । आपको अकेलापन, एकांत खलता है न ? आप के मन को स्नेह से प्लावित करनेवाला और प्रेमदृष्टि से घायल करनेवाले सहयोगी की आवश्यकता है न ? यह रही वह सुयोग्य, रुपसम्पन्न, नवयौवना इन्द्राणी समता-शचि ! आपकी कायमी सहयोगिनी है ! इसी समता-शचि के हाथ अमृतपान करते रहना, उसके अनिंद्य सौन्दर्य का उपभोग करते रहना! आपको कभी अकेलापन महसूस नहीं होगा !आपका मन सदा-सर्वदा प्रेम को मस्ती में खोया रहेगा । समता-शचि मध्यस्थष्टि है । अतः इसे क्षणार्ध के लिए भी अपने से अलग नहीं करना । ' लेकिन वास-स्थान कहां ?' अरे मुनिराज, आपको विशाल विमान में ही निवास करना है । इंट-चूने और मिट्टी-पत्थर से बनी इमारतें इसके मुकाबले तुच्छ हैं ! घास फूस की झोंपड़ी या मिट्टी के कच्चे मकान आपके लिए नहीं! आपको अपने परिवार के साथ विमान में ही निवास करना है। ज्ञान-रुपी महाविमान के आप खुद एक मात्र मालिक हैं । ज्ञान/आत्मस्वरूप के अवबोध रूपी ज्ञान...यही महाविमान है । बताइए, इसमें निवास करते हुए पापको किसी कठिनाई का सामना तो नहीं करना पडेगा न ? सभी प्रकारकी सुविधाएँ और सुख सामग्री से युक्त यह विशाल विमान है....! वस्तुतः आपका नंदनवन भी इसी विमान में है और आपकी अनन्य सहयोगिनी इन्द्राणी तथा वज्र भी इसी विमान में रहेंगे ! Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001715
Book TitleGyansara
Original Sutra AuthorYashovijay Upadhyay
AuthorBhadraguptasuri
PublisherVishvakalyan Prakashan Trust Mehsana
Publication Year
Total Pages636
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Principle
File Size11 MB
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