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________________ तस्वष्टि २७५ और जिसे शरीरकी कतइ परवाह नहीं, तन-बदन पर मैल की पर्त जम गयी हो, कपडे मैले-कूचले हों, बेढंगे वस्त्र धारण किये हो, उसे भी बहिई ष्टि मनुष्य महात्मा कहता है । जानते हो? तत्त्वदृष्टि मनुष्य 'महात्मा' को किस कसौटी से जानता है ? पहचानता है ? ज्ञान के प्रभुत्व के माध्यम से पहचानता है । * ज्ञान-साम्राज्य का जो अधिपति वह महात्मा ! * ज्ञान की प्रभुता का प्रभु यानि महात्मा ! तत्त्वदृष्टि जीव, कसौटी करते हुए देखता है : " इसमें क्या ज्ञान की प्रभुता है ? साथ ही, इसके ज्ञान साम्राज्य का विस्तार कितना और कैसा है ? " बिना ज्ञान, महानता असंभव है। ज्ञान के बिना जीव वास्तविक 'महात्मा' नहीं बन सकता ! ज्ञान की प्रभुता से युक्त महापुरूषों को सिर्फ तत्त्वदृष्टि मनुष्य ही पहचान सकता है । संभव है कि वे ज्ञानी महात्मा शरीर पर भस्म न लगाते हो, अपनी देह को और वस्त्रों को मैले कुचले नहीं रखते हो, ना ही केश का लुचन कराते हो। ऐसी स्थिति में बाह्यष्टि जीव उनको महात्मा के रूप में नहीं देख सकता है। लेकिन जहाँ ज्ञान का सर्वथा अभाव हो, फिर भी शरीर पर भस्म का लेपन होगा, तन-बदन गंदा होगा, केश-लुचन होगा.... वहाँ बाह्यदृष्टि जीव आकर्षित होते देर नहीं लगेगी ! हालांकि उसे वहाँ ज्ञान का प्रकाश नहीं मिलेगा। वह (बाह्यष्टि जीव ) ज्ञानार्जन के लिए महात्माओं की खोज करता ही कहाँ है ? वह महात्माओं के पास, संत चरणों में सर अवश्य झुकाता है, परन्तु भौतिक सुख पाने के साधन जुटाने के लिए ! जानते हो, वह कौन से साधन हैं ? ' संपत्ति कैसे इकठ्ठी करना? एक रात में सुलतान कैसे बनना! सोना-चांदो किस तरह बटोरना और पुत्र-पौत्रादि कैसे प्राप्त करना !' ऐसो अजीबोगरीब पौद्गलिक वासनामों की तृप्ति के लिए वह संतचरण में झुकता है ! उसकी यह दृढ मान्यता होती है कि मैले-कुचले, गंदे और नंग-धडंग बाबा, जोगी और अघोरी के पास ऋद्धि-सिद्धियों का भंडार भरपूर होता है ! वे क्षणार्घ में ही गरीब को अमीर और बांझी को पुत्रवती बनाने की अद्भुत क्षमता रखते हैं !' बाह्यदृष्टि जीव को मोक्षमार्ग के लिए उपयोगी और कर्म-बंधन Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001715
Book TitleGyansara
Original Sutra AuthorYashovijay Upadhyay
AuthorBhadraguptasuri
PublisherVishvakalyan Prakashan Trust Mehsana
Publication Year
Total Pages636
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Principle
File Size11 MB
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