SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 291
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ तत्त्वदृष्टि २६७ स्थुलभद्रजी स्वयं अंतःसुख से, तत्त्वदृष्टि के सुख से परिपूर्ण थे। लेकिन परम सौन्दर्यवती कोशा ने उन्हें विषवक्षयुक्त वाटिका में ही चातुर्मास हेतु ठहराया था। वह नित्यप्रति विषफलों से भरे थाल लेकर उनकी सेवा में स्वयं उपस्थित रहती और मगध की यह सुप्रसिद्ध नृत्यांगना उन्हें बाह्यदृष्टि की सुख-सामग्री से मोहित करने का यथेष्ट प्रयत्न करती थी । लेकिन लाख प्रयत्नों के बावजूद भी तत्त्वदृष्टियुक्त स्थुलभद्रजी के आगे उसकी दाल न गली । वह उन्हें मोहित करने के बजाय स्वयं उनके रंग में रंग गयी ! स्थुलभद्रजी ने तत्त्वष्टि का अंजन कर और तत्त्वदृष्टि का अमृतपान करा कर उसे ऐसी बना दी कि उसमें आमूल परिवर्तन की उत्कट भावना पैदा हो गई । बहिई ष्टि की वाटिका में रहते हुए भी कोशा प्रसार संसार से निर्लिप्त बन गयी । तात्पर्य यह है कि तत्त्वदृष्टि के बिना कोई जीव बहिर्डष्टि की वाटिका से सही-सलामत बाहर नहीं निकल सकता । ग्रामारामादिमोहाय यद् दृष्टं बाह्यया दृशा ! तत्वदृष्ट्या तदेवान्तीतं, वैराग्यसंपदे ॥३॥१४७।। अर्थ : बाह्यदृष्टि से देखे गये गांव, और बाग-बगीचे, मोह के कारण बनते हैं ! जबकि तत्त्वदृष्टि से प्रात्मा में उतारा हुआ यह सब वैराग्य. प्राप्ति के लिए होता है । विवेचन : वही चिर-परिचित गांव और नगर, वही कुंज-निकुंज और उद्यान....नंदनवन...। .वही परम सौन्दर्यमयी ललनाएँ, अप्सराएँ, किन्नरियाँ ! –बाह्यदृष्टि से इनकी ओर देखने पर प्रीति होती है। लेकिन इन्हें ही तत्त्वदृष्टि से देखा जाएँ तो मन में वैराग्य की भावना जागृत होती है । अत: हे महामार्ग के अनन्य आराधक ! तुम्हें रागी बनना है या विरागी ? तुम श्रमण बन गये, विरागी हो गये, विरतिधर बन गये, लेकिन फिर भी वैराग्य-मार्ग पर विजयश्री प्राप्त करना शेष है । त्याग करने मात्र से वैराग्य की प्राप्ति नहीं होती ! विरागी बनने की आंतरिक इच्छा से तुमने त्याग किया है, यह सौ-टक्का सच है, लेकिन वैराग्य में मस्तो प्राप्त करने का दुष्कर कार्य अभी तुम्हें त्यागी जीवन में शुरु करना है और वैराग्य की अगोचर दुनिया में धूम मचाना है । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001715
Book TitleGyansara
Original Sutra AuthorYashovijay Upadhyay
AuthorBhadraguptasuri
PublisherVishvakalyan Prakashan Trust Mehsana
Publication Year
Total Pages636
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Principle
File Size11 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy