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________________ निभ यता २३७ मुनिश्रेष्ठ ! आप निर्भय हैं ! आप को निर्भय बनाने वाली ज्ञानदृष्टि है ! ज्ञानदृष्टि से विश्वावलोकन करते हुए तुम निर्भयता की जिदगी बसर कर रहे हो ? जहाँ ज्ञानदृष्टि वहीं निर्भयता ! समस्त सृष्टि को जानना है राग-द्वष किये बिना ! जगत की उत्पत्ति, विनाश, और स्थिति को जानना-देखना यही ज्ञानदृष्टि कहलाती है। जब तुम ज्ञानरष्टि के सहारे सारे संसार को देखोगे तब राग-द्वेष और मोह का कहीं नामोनिशान नही होगा । यदि विश्वावलोकन में किचित् भी राग-द्वेष और मोह का अंश आ गया तो समझ लेना चाहिए कि जो अवलोकन कर रहे हैं वह ज्ञानदृष्टि से युक्त नहीं है, बल्कि ज्ञानदृष्टि-विहिन है और है अज्ञान से परिपूर्ण । भारे क्रोध से राजा की अांखें लाल-सुर्ख हो रही थी, नथूने फूल रहे थे, हाथ कांप रहे थे और मुखमण्डल कोप से खिचा हुआ था। पांव पछाडता राजा झांझरिया मुनिवर की ओर लपक पडा था, मुनिवर की हत्या करने के लिये ! लेकिन क्षमाशील झाझरिया मुनिवरने इस घटना को किस रूप में लिया और किस रूप में उसका मूल्यांकन किया ? नही जानते, तो जान लो । उन्होंने इस घटना को सहज में ही लिया और ज्ञानदृष्टि से उसका मूल्यांकन किया। उनके मनमें राजा के प्रति न रोष था, ना कोप ! उन्हें अपने तन-बदन पर मोह ही नहीं था ! उन्होंने इस घटना पर विचार करते हुए मन ही मन सोचा : "राजा भला, मेरा क्या लटने वाला है ? उस की तलवार का और रोष का डर किस लिये ? मैंने कुछ छिपा नहीं रखा है । जो है सबके सामने है ! और फिर शरीर का मोह कैसा ? वह तो विनाशी है। कभी न कभी नष्ट होगा ही ! तलवार का प्रहार जब शरीर पर होगा तब मैं परमात्मध्यान में मग्न हो जाऊंगा, समता-समाधिस्थ बन जाऊंगा ! तब मेरे लूटे जाने का प्रश्न हो उपस्थित नही होता !" फलत: मुनिवर निर्भयता की परम ज्योति के सहारे परम ज्योतिर्मय बन गये । जब तक तुम कुछ छिपाना चाहते हो, सौदेबाजी करने में खोये रहते हो, किसी बात को गोपनीय रखना चाहते हो, तबतक तुम्हारे Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001715
Book TitleGyansara
Original Sutra AuthorYashovijay Upadhyay
AuthorBhadraguptasuri
PublisherVishvakalyan Prakashan Trust Mehsana
Publication Year
Total Pages636
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Principle
File Size11 MB
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