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________________ मध्यस्थता २२३ प्रत्येक जड़-चेतन द्रव्य के पर्यायों के परिवर्तन का यथार्थ-चितन । साथ हो विशुद्ध प्रात्म-द्रव्य का भी सतत चिंतन करना चाहिए। स्तुत्या स्मयो न कार्यः कोपोऽपि च निन्दया जनः । यदि कोइ हमारी स्तुति करता हैं तो स्वयं अपने कर्म से प्रेरित होकर करता है। हम भला उसमें अनुराग क्यों करें?ठीक उसी तरह, अगर कोई निंदा करता है, तो वह भी अपने कर्म से प्रेरित होकर। उसके प्रति द्वेष क्यों रखें ? हमें तो सिर्फ यह तत्त्वज्ञान प्राप्त करना चाहिए कि जीवों पर किन कर्मों का कैसा प्रभाव पड़ता है, किस-किस कार्य के पीछे कौन से कर्म कार्यरत हैं ?' इस से मध्यस्थ दृष्टि का विकास अवश्य होता है । लेकिन प्रस्तुत दृष्टिकोण तो अन्य जड़-चेतन द्रव्यों की तरफ अपनाना है । मनः स्याद् व्यापतं यावत् परदोषगुणग्रहे । कार्य व्यन वरं तावन् मध्यस्थेनात्मभावने ।।५।।१२५।। अर्थ :- जब तक मन पराये दोष और गुणग्रहण करने में प्रवर्तित है, तब तक मध्यस्थ पुरुष को अपना मन आत्म-ध्यान में अनुरक्त करना श्रेष्ठ है । विवेचन : पर-द्रव्य के गुण-दोषों का विचार करने की आवश्यकता ही क्या है ? ऐसे गुण-दोष के विचार से ही मन रागी और द्वेषी होता है। रागी-द्वेषी मन समभाव का आस्वाद नहीं ले सकता । किसी भी हालत में अपने मन को पर-द्रव्य की ओर आकर्षित ही नहीं होने देना चाहिए । मन को प्रात्म-स्वरूप में निमग्न करने से वह भूल कर भी पर-द्रव्य की अोर नहीं भटकता ! हमें आत्म-स्वरूप में अनुरक्तता का व्यवहारिक मार्ग खोज निकालना चाहिए । जिसे साधक आत्मा प्रयोग में ला सकें और आत्मानुभव का आंशिक स्वाद भी चख सके । . सदागमों का अध्ययन-चिंतन, परिशीलन, अनित्यादि भावनाओं का मनन (भावन), प्रात्मा के स्वाभाविक-वैभाविक स्वरुप का चिंतन, नय-निक्षेप और स्याद्वादशैली का पठन-पाठन, आवरणरहित आत्मा के स्वरुप का ध्यान, प्रात्मभाव में तल्लीन साधुओं का समागम-सेवा और सम्यगज्ञान की प्राप्ति, अनुभव ज्ञान की प्राप्ति, स्व-कर्तव्यों के प्रति Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001715
Book TitleGyansara
Original Sutra AuthorYashovijay Upadhyay
AuthorBhadraguptasuri
PublisherVishvakalyan Prakashan Trust Mehsana
Publication Year
Total Pages636
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Principle
File Size11 MB
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