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________________ १७७ . सुलभं वागनुच्चारं मौनमेकेन्द्रियेष्वपि । पुदगलेषु अप्रवृत्तिस्तु योगीनां मौनमुत्तमम् ॥७॥१०३ ॥ अर्थ :- वाणी का अनुच्चार रूप मौन एकद्रिय जीवों में भी आसानी से प्राप्त सके वैसा हैं, लेकिन पुद्गलों में मन, वचन, काया की कोई प्रवृत्ति न हो, यही योगी पुरुषों का सर्वश्रेष्ठ मौन है ! विवेचन : मौन की परिभाषा सिर्फ यहाँ तक ही सीमित अथवा पर्याप्त नहीं है कि मुंह से बोलना नहीं, शब्दोच्चार भी नहीं करना । प्रायः 'मौन' शब्द इस अर्थ में प्रचलित है । लोग समझते हैं कि मुँह से न बोलना मतलब मौन । और आमतौर से लोग ऐसा ही मौन धारण करते दिखायी देते हैं । लेकिन यहां पर ऐसे मौन की महत्ता नहीं बतायी गई है । सर्व साधारण तौर पर मनुष्य की भूमिका को परि. लक्षित कर, मौन की सर्वांगसुन्दर और महत्वपूर्ण परिभाषा की गयी है। मुंह से शब्दोच्चार नहीं करने जैसा मौन तो पृथ्वीकाय, अपकाय, तेजस्काय, वायुकाय, और वनस्पतिकाय जैसे एकेन्द्रिय जीवों में भी पाया जाता है, दिखाई पड़ता है । लेकिन प्रश्न यह है कि क्या ऐसा मौन मोक्षमार्ग की आराधना का अनन्य साधन/अंग बन सकता है ? क्या ऐसे मौन से एकेन्द्रिय जीव कर्ममुक्त अवस्था की निकटता साधने में सफल बनते हैं ? सिर्फ 'शब्दोच्चार नहीं करना', इसको ही मौन मानकर यदि मनुष्य मौन धारण करता हो और ऐसे मौन को मुक्ति का सोपान समझकर प्रवृत्तिशील हो, तो यह उसका भ्रम है । * मन का मौन : मानसिक मौन * वचन का मौन : वाचिक मौन * काया का मौन : कायिक मौन प्रात्मा से भिन्न ऐसे अनात्मभावपोषक पदार्थों का चिंतन-मनन नहीं करना । स्वप्न में भी उसका विचार नहीं करना । इसे मन का मौन अर्थात् मानसिक मौन कहा जाता है । हिंसा, चोरी, झठ, दुराचार, परिग्रह, क्रोध, मान, माया, लोभादि अशुभ पापविचारों का परित्याग करने की प्रवृत्ति रखना ही मन का मौन है । प्रिय पदार्थ १२ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001715
Book TitleGyansara
Original Sutra AuthorYashovijay Upadhyay
AuthorBhadraguptasuri
PublisherVishvakalyan Prakashan Trust Mehsana
Publication Year
Total Pages636
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Principle
File Size11 MB
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