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________________ नि:स्पृहता १४६ किसी की आवश्यकता है तो सिर्फ अात्मस्वभाव के ऐश्वर्य की और परमानंद की! मुनिराज इस तरह का दृढ निश्चय कर नि:स्पृह बने । नि:स्पृहता की शक्ति से वह विश्वविजेता बनता है ! फलतः संसार का कोई ऐश्वर्य अथवा सौन्दर्य उसे आकर्षित करने में असफल रहेगा, उसे लुभा नहीं सकेगा । दिन-रात एक ही तमन्ना होनी चाहिए : मुझे तो आत्मस्वभाव चाहिए, उसके अलावा कुछ नहीं !" जिसमें प्रात्मस्वभाव के अतिरिक्त दूसरी कोई स्पृहा नहीं हैं, उसका ऐश्वर्य अद्वितीय और अनूठा होता है ! श्रेष्ठिवर्य धनावह ने महाश्रमण वज्रस्वामी के चरणो में स्वर्णमुद्राओं का कोष रख दिआ ! उसकी पुत्री रुप-रंभा रूक्मिणी ने अपना रूप-यौवन समपित कर दिया ! लेकिन वज्रस्वामी जरा भी विचलित न हुए ! वे तो आत्म-स्वभाव के आकांक्षी थे ! उन्हें सूवर्णमुद्रा और मोती-मुक्ताओं की स्पृहा न थी, ना ही रुप-यौवन की कामना ! धनावह और रुक्मिणी उनके अन्तःकरण को अपनी ओर आकर्षित नही कर सके ! लेकिन महाश्रमण ने अात्मस्वभाव के ऐश्वर्य का ऐसा तो रुक्मिणी को रंग दिखाया कि रुक्मिणी मायावी-ऐश्वर्य से ही अलिप्त बन गयी, विरक्त हो गई ! प्रात्म-स्वभाव के अनूठे ऐश्वर्य की प्राप्ति हेतु पुरूपार्थशील हो गई ! आत्मस्वभाव का ऐश्वर्य जिस मुनिराज को आकर्षित करने में असमर्थ है, वे (मुनिराज) ही पुद्गल जन्य अधम ऐश्वर्य की ओर आकर्षित हो जाते हैं और अपने श्रमणत्व, साधुता को कलंकित कर बैठते हैं । दीनता की दर्दनाक चीख-पुकार, आत्मपतन के विध्वंसकारी प्राघात और वैषयिक-भोगोपभोग के प्रहारों से लुढ़क जाते हैं, क्षतविक्षत हो जाते हैं ! नटी के पीछे पागल अषाढाभूति की विवशता, अरणिक मुनि का नवयौवना के कारण उद्दीप्त वासना-नृत्य, सिंहगुफावासी मुनि की कोशा गणिका के मोह में संयम-विस्मृति....यह सब क्या ध्वनित करता है ? सिर्फ आत्मस्वभाव के ऐश्वर्य की सरासर विस्मृति और भौतिक पार्थिव ऐश्वर्य पाने की उत्कट महत्वाकांक्षा ! वैषयिक-ऐश्वर्य की अगणित वासनाएँ और विलासी-वृत्ति ने उन्हें अशतक कर दिया । अशक्त होकर वे दर-दर की ठोकरें खाने के लिए विश्व Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001715
Book TitleGyansara
Original Sutra AuthorYashovijay Upadhyay
AuthorBhadraguptasuri
PublisherVishvakalyan Prakashan Trust Mehsana
Publication Year
Total Pages636
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Principle
File Size11 MB
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