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________________ तृप्ति १२५ जो मनोहर और निरंकुश राजसत्ता की अनन्त प्राशा, अपेक्षा और महत्वाकांक्षा अपने हृदय में संजोये, संसार में दर-दर की ठोकरें खाते भटक रहे हैं । सत्ता और शासन के लाल कसूबल मदिरा के पात्र में ही जिसने तप्ति की मिथ्या कल्पना कर रखी हो, उसे भला, परम ब्रह्म की तप्ति का एहसास कैसे हो सकता है ? ठीक वैसे ही मृदु वाणी के मंजुल स्वरों में भी परम ब्रह्म की तृप्ति का अनुभव असंभव है। क्योंकि वह तृप्ति तो अगम अगोचर है, पूणतया कल्पनातीत है । वह वचनातोत है, आन्तरिक है और मन के अनुभवों से अलग थलग है । इसे प्राप्त करने के लिये चंचल मन और विषयासक्त इन्द्रियों को निराश होकर लौट जाना पड़ता है। 'तब भला, परम ब्रह्म की तप्ति कैसी है ? इसका' प्रत्युत्तर किसी पद से देना असंभव है । 'अपयस्स पयं नत्थि' पदविरहित आत्मा के स्वरुप का, किसो पद-वचन से वर्णन करना संभव नहीं । और तो क्या. स्वयं बहस्पति अथवा केवलज्ञानो महापुरुष भी उसका वर्णन करने में असमर्थ हैं। क्योंकि वह कथन की सीमा से सर्वथा परे जो है। इसका केवल अनुभव किया जा सकता है । यदि कोई पूछे ‘शक्कर का स्वाद कैसा ?' इसका क्या जवाब हो सकता है ? क्योंकि शक्कर का स्वाद वर्णनातीत होकर अनुभव लेने की बात है । वैसे जगत के सामान्य जीव भोजनतृप्ति से भलीभाँति परिचित हैं। क्योंकि उसका अनुभव मधुर घो, मेवा-मिठाई और स्वादिष्ट सब्जिया के सेवन से प्राप्त होता है । उसमें गोरस (दूध-दही), मीठे फल, चटपटी चटनी, अचार, मुरब्बों का समावेश होता है । ऐसे उत्तमोत्तम भोजन से तृप्ति का अनुभव करने वाले सांसारिक जीव परम तृप्ति का अनुभव तो क्या, बल्कि उसे ठीक से समझने में भी सर्वथा असमर्थ हैं । परम ब्रह्म की तृप्ति का वास्तविक स्वरूप जानने और समझने के लिये घोर तपश्चर्या करनी पड़तो है । जबकि परम ब्रह्म में तृप्त बनी अात्मा इस तृप्ति में ऐसी खो जाती है कि जगत के अन्यान्य पदार्थ उसे अपनी ओर आकर्षित नहीं करते, रिझा नहीं सकते । कोटिशिला पर श्री रामचन्द्रजी ने क्षपक-श्रेणी की समाधि लगा दी । आत्मानद... पूर्णानन्द के साथ तादात्म्य साध लिया । इसकी Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001715
Book TitleGyansara
Original Sutra AuthorYashovijay Upadhyay
AuthorBhadraguptasuri
PublisherVishvakalyan Prakashan Trust Mehsana
Publication Year
Total Pages636
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Principle
File Size11 MB
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