SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 144
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ १२० ज्ञानसार ज्ञान-तृप्ति अनुभवगम्य है । यह किसी वाणी विशेष का विषय नहीं है । तृप्ति के अनुभव-हेतु आत्मा को अपने ही गुणों का अनुरागी बनना होता है । संसारे स्वप्नवन्मिथ्या तप्तिः स्यादाभिमानिकी । तथ्या तु शान्तिशून्यस्य, साऽऽत्मवीर्यविपाककृत् ॥ ४ ।। ७६ ॥ अर्थ :- सपने की तरह संसार में तृप्ति होती है, अभिभान-मान्यता से युक्त ! [ लेकिन ] वास्तविक तृप्ति तो मिथ्याज्ञान-रहित को होती है । वह आरमा के वीर्य की पुष्टि करने वाली होती है। विवेचन : संसार में तुम विविध प्रकार की तृप्ति का अनुभव करते हो न ? वैषयिक सुखों में तुम्हें तप्ति की डकार आती है न ? लेकिन यह निरा भ्रम है.... हमारी भ्रान्ति ! केवल मृगजल, जो वास्तविकता से परिपूर्ण नहीं । यह भलीभाँति समझ लो कि सांसारिक तृप्ति असार है, मिथ्या है और मात्र भ्रम है । सपने में षडरसयुक्त मिष्टान्नों का भर-पेट भोजन कर लिया, सुवासित शर्बत का पान कर लिया और ऊपर से तांबूल-पान का सेवन ! बस, तप्त हो गये ! इसी में जीव ने अलौकिक तप्ति का अनुभव कर लिया । लेकिन स्वप्न-भंग होते ही, निद्रा-त्याग करते ही, तृप्ति का कहीं अता-पता नहीं । सूरा-सुन्दरी और स्वर्ण के स्वप्नलोक में निरन्तर विचरण करने वाली जीवात्मा, जिसे तृप्ति सम भ ने की गलती कर बैठी है, वह तो सिर्फ कल्पनालोक में भरी एक उडान है, जो वास्तविकता से परे और परमतृप्ति से कोसों दूर है । उससे जरूर क्षणिक मनोरंजन और मौज-मस्ती का अनुभव होगा, लेकिन स्थायित्व बिल्कुल नहीं । संसार के एशो-आराम और भोग-विलास की धधकती ज्वालाओं को पल, दो पल शांत करने के पीछे भटकता जीव. यह नहीं समझ पाता कि पल-दो पल के बाद ज्वाला शांत होते ही, जो अकथ्य वेदना, असह्य यातना, ठंडे निश्वास, दीनता, हीनता और उदासीनता उसके जीवन में छा जाती है, वह हमेशा के लिये बेचैन, निर्जीव, उद्विग्न बनकर अशान्ति के गहरे सागर में डूब जाता है । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001715
Book TitleGyansara
Original Sutra AuthorYashovijay Upadhyay
AuthorBhadraguptasuri
PublisherVishvakalyan Prakashan Trust Mehsana
Publication Year
Total Pages636
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Principle
File Size11 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy