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________________ क्रिया १११ सुनने की वृत्ति अप्रिय लगने लगती है । जीवन में से पापमय पुरुषार्थ लुप्त होने लगता है और एक दिन ऐसा आता है, जब इन समस्त कुप्रवृत्तियों से पीछा छुड़ाकर परमात्मा के मधुर-मिलनार्थ जीवात्मा संयम-मार्ग की ओर अग्रसर होता है, दौड़ लगा देता है । उस समय उसे किसी बात की परवाह नहीं होती। भले फिर मार्ग कंटकाकीर्ण और उबड़-खाबड़ क्यों न हो ? मूसलाधार वर्षा और देह को कंपायमान करने वाली सर्द रात क्यों न हो? उसे इनका कतई अनुभव नहीं होता । अपितु उसकी कल्पना-सृष्टि में सिर्फ एक 'परमात्मा' के अतिरिक्त, कुछ नहीं होता । वह निरन्तर बढ़ता ही जाता है । गति में बाधा नहीं पडने देता और जैसे-जैसे आगे बढ़ता है, वैसे-वैसे उसके आनन्द, उत्साह और उल्लास का पार नहीं रहता है । तात्पर्य यह है कि जब तक गुणों की पूर्णता प्राप्त न हो तब तक जीवात्मा को चाहिये कि वह जिनेश्वर देव द्वारा निरूपित क्रियाओं को निरन्तर करता ही रहे । उन क्रियाओं की जानकारी प्राप्त कर केवल कृतकृत्य होना नहीं है । यदि क्रिया को त्याग दिया, तिलांजलि दे दी, तो ज्ञान एक तरफ धरा रह जाएगा और जीवन नानाविध पाप-क्रियाओं से सराबोर हो जाएगा। तब तुम्हारे ज्ञान का उपयोग उन्हें जडमूल से उखाड़ फेंकने के बजाय उनको पुष्ट करने के लिये होगा और तब परिणाम यह होगा कि आत्मा की उन्नति के बजाय अवनति / पतन होते पल का भी विलंब न होगा । आत्मा की ऐसी दुर्दशा न हो, अतः उपाध्यायजी महाराज धर्मक्रियाओं को कार्यान्वित करने में मन-वचनकाया से लग जाने की/जुट जाने की प्रेरणा देते हैं । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001715
Book TitleGyansara
Original Sutra AuthorYashovijay Upadhyay
AuthorBhadraguptasuri
PublisherVishvakalyan Prakashan Trust Mehsana
Publication Year
Total Pages636
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Principle
File Size11 MB
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