SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 110
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ८६ ज्ञानसार दूसरे के साथ निःस्वार्थ स्नेह, प्रीति के संबंध बाँध नहीं सकता । अतः हे भाईयों ! अब मैंने आपके साथ के पूर्व संबंधों को तिलांजलि देकर, परम शाश्वत्, अनंत - असीम ऐसे शील, सत्य, शमैं- उपशम, संतोषादि गुणों को ही बन्धु के रूप में स्वीकार किये हैं । आत्मा के शील-सत्यादि गुरणों के साथ बन्धुत्व का रिश्ता जोडे बिना जीवात्मा बाह्य जगत् के संबंधों का विच्छेद नहीं कर सकता । बाह्य जगत का परित्याग यानी हिंसा, असत्य, चौर्य, मिथ्यात्व, परिग्रह, दुराचार, क्रोध, मान, माया, लोभ आदि वृत्तियों का त्याग और वह त्याग करनेके लिये श्रहिंसा, सत्य, अचौर्य, शील, निष्परिग्रहता, क्षमा, नम्रता, सरलता, विवेकादि गुणों का जीवन में स्वीकार ! उन्हीं को केन्द्रबिन्दु मान जीवन व्यतीत करना होगा । ऐसी स्थिति में जीवन विषयक दैनंदिन प्रश्नों को हल करने के लिये क्रोधादि कषायों का आश्रय नहीं ले सकते । हिंसादि पाप बन्धनों की शरण नहीं ग्रहण कर सकते । अर्थ : कान्ता मे समतैौका, ज्ञातयो मे समक्रिया: बाह्यवर्गमिति त्यक्त्वा, धर्मसंन्यासवान् भवेत् || ३ ||५|| 'समता ही मेरी प्रिय पत्नी है और समान आचरण से युक्त साधु मेरे स्वजन-स्नेही हैं।' इस तरह बाह्य वर्ग का परित्याग कर, धर्मसन्यास युक्त बनता है । विवेचन : समता ही मेरी एकमात्र प्रियतमा है । अब मैं उसके प्रति ही एकनिष्ठ रहूंगा । जीवन में कभी उससे छल-कपट नहीं करुंगा । आज तक मैं उससे बेवफाई करता आया हूं। ऐसी परम सुशील पतिव्रता नारी को तज कर मैं ममता - वेश्या के पास चक्कर काटता रहा, बार-बार वहाँ भटकता रहा । ममता, स्पृहा, कुमति वगैरह वेश्याओं के साथ वर्षों तक आमोद-प्रमोद करता रहा और बेहोश बन, मोहमदिरा के जाम पर जाम चढ़ाता आया हूँ। वह भी इस कदर कि, उसमें डूब अपना सब कुछ खो बैठा हूँ । लेकिन समय आने पर उन्होंने मिलकर मुझे लूट लिया, मुझे बेइज्जत कर घर से खदेड दिया । फिर भी निर्लज्ज बन अब भी उनकी गलियों के चक्कर काटना भूल नहीं पाया । पुनः जरा संभलते ही दुगुने वेग से वेश्याओं के द्वार खटखटाने लगा हूँ । मैं उन्हें भूल नहीं Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001715
Book TitleGyansara
Original Sutra AuthorYashovijay Upadhyay
AuthorBhadraguptasuri
PublisherVishvakalyan Prakashan Trust Mehsana
Publication Year
Total Pages636
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Principle
File Size11 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy